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चौथा अध्याय
धर्मप्राप्तिकी भूमिका अहिंसाधर्मको पालनेके लिये विविध प्रकारकी हिंसाका त्याग करना बनिवार्य है उसका क्रमवार त्याग करना बताया जाता है ।
[ अष्टमूलगुण पालन मचं मांसं क्षौद्रं पंचोदम्बरफलानि यत्नेन । हिंसाव्युपरतिकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव ।। ६१ ॥
पद्य
हिंसात्याग भावना जिसके उसका मुख कर्त्तव्य यह...मथ मांस बरु मधु त्यागमा, पंच उदम्बर ग्रहण नहीं ।। बत पालनको यही भूमिका, व्यवहरनय बतलाती है। निश्चयममसे मनशुद्धि हो---भूमिशुद्धि कहलाती है ।।१।। भाठ चतुएँ निमिसकारण----हिंसाकी मानी जाती ।
अतः उहीका स्याग कहा है, दयाधर्म सूचक होती ।। अन्यय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ हिंसाव्युपरतिकामै , जो जीव ( मुमुक्षु हिंसा करनेसे विरक्त होते हैं अर्थात् हिंसाको त्यागनेकी भावना रखते हैं, उनको [प्रथममंत्र बस्नन मां, मांस, क्षौद्रं पंचोदम्परफलानि मोक्तव्यानि ] चाहिये कि वे अहिंसा धर्म पालनेके लिये पहिले या प्रारंभ हो--- मद्य-मांस-मधु (क्षौद्र ) का तथा पांच उदम्बर फलोंको खानेका अवश्य त्याग करें क्योंकि उनके खाने में हिंसा अधिक और लाभ कम होता है और वे जीवनके अनिवार्य कारण भी नहीं हैं इत्यादि ॥ ६१ ॥
१. यहाँ पाँच उदम्दर फलों { अमर, कठूमर, बड़, पीपर, पाकर ) का त्याग करना ५, मूलगुण तथा मदिरा,
मांस, मधु ( शहद ) का त्याग ३ मूलगुण कुल ८ मूलगुण बसलाए है क्योंकि उन माठ वस्तुओंमें बहुत जीवराशि रहती है वह उनके ग्रहण करने ( खाने ) से नष्ट होती है जो हिसारूप है पाप या दोषरूप है । उनका त्याग करना गुणरूप है ऐसा समझना चाहिये । वही प्रत या धर्मको नीब है सो प्रत्येक जन्न श्रावक को चाहिये कि उक्त आठ मूलगुणोंको प्रयम पालन कर धर्मके अधिकारी ( पात्र ) बनें । इनमें मतभेद है जो बताया गया है।