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पुरुषार्थसिमपाय
फलस्वरूप
निश्चयष्टिः स्वयमग्रम जान बन्धो न में स्यात् इत्युत्तामलकवदना: शगिणोऽध्यावन्ति । न हि सिध्यन्ति ज्ञाम शून्याः ते हि अत्यम्पा:
निश्चयव्यवहारज्ञानरहिसाः बावका वसकाः ॥ इति ।। आचार्य कहते हैं कि सिर्फ बाह्य व्यापार क्रियाकांडके छोड़ बने मात्रसे कोई निश्चययावलंबी और शुद्ध अहिंसक । धर्मात्मा) नहीं हो सकता है क्योंकि उसके विरुद्ध फल ( कार्य) को देखने में आता है। यथा--
अविधायापि हि हिंसा हिंसाफलभाजनं भवत्येकः । कृत्वाप्यरो हिंसा हिंसाफलभाजनं न स्यात् ॥५१॥
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हिंसानिया न करने पर मी, कोई हिंसा कल पाता। कोई सिंग सर पर , पाल पास फल मिलसा परिणामों से नहीं कियास फल मिलता।
है व्यभिचार क्रिया के साथ ही, नहि परिणाम व्या खोता ।।५१॥ ___ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ एकः हि हिंसा अधिशयापि हिंसाफलभाजनं भवति ] निदचयसे ऐसा होता व देखा जाता है कि हिंसा क्रिया (परजीचका घात न करने पर भी, अर्थात बाह्य प्रवृत्ति बन्द कर देने पर भी कोई हिंसाका फल भोगता है अर्थात् विना किये फल या दंड पाता है । इसका कारण जीवके भाव हैं ) तथा [ अपरः हिंसा कृत्वा हिंसा फलभाजने न स्यात् ] कोई जीव ऐसा होता है कि हिंसा करके भी ( परजीवका घात करके भी) हिंसाके फलको नहीं पाता, अर्थात् उसके दंडको नहीं भोगता ( नरकनिगोदादि पर्याय नहीं पाता ) । इसका कारण भी जहाँ जीवके परिणाम ही हैं, क्रिया नहीं है। फलतः जहाँ सर्वोत्कृष्ट 'अहिंसा पाई जाती है। धर्म, है जिसमें जीवहिंसा व विषय-कषायको पुष्टि नहीं। शेष सब अधर्म है ॥५१॥
भावार्थ-हिंसा व अहिंसा निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो तरहकी होती है व्यवहार में हिंसा, परजीवके प्राणघात होनेसे मानी जाती है किन्तु निश्चयमें, परजीवको मारनेका इरादा { संकल्प या क्रोधादि ) करने पर क्रोधादिरूष ही हिंसा ( स्वभावका घातरूप ) मानो आती है । इसी तरह विकारी भावोंके न होनेसे स्वभावका धास नहीं होता, तब वह अहिंसक माना जाता है और कदाचित् विकारीभाव न होनेके समय यदि स्वभावतः होने वाली शारीरिक क्रिया
१. अविनाभाव-जैसा भाव होता है वैसा फल मिलता है, इसमें व्यभिचार नहीं होता। परन्तु क्रिया के
साथ व्यभिचार हो जाता है क्योंकि उसके साथ व्याप्ति नहीं मिलली, यह तात्पर्य है।