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सभ्यचारिन
भंग कैसे हो सकता है ? तब वैसा उपाय करना मूर्खता है, तथा बह चारित्र नहीं है, किन्तु वह मिथ्याचारित्र या कुचारित्र कहलायगा, इत्यादि दोष ( आपत्ति ) आयगा। देखो अज्ञान १ कमायके रहनेपर चारित्र नहीं होता, अतः सम्यग्दर्शनके विना तप महावतादिका पालना सब भिथ्याचारित्र नाम पाता है। चारित्र पालनेका उद्देश्य कषाय भावोंको घटानेका है..वह निमित्त कारण है। तत्त्वज्ञानका अर्थ वस्तु स्वरूपका यथार्थ ज्ञान होना है अर्थात् स्वरूप विपर्ययताका हटना है। जैसे कि आत्माका स्वरूप, जानना मात्र नहीं है क्योंकि जानना तो मिथ्यावृष्टि सम्यग्दृष्टि सभी जीवोंके योग्यता (क्षयोपशम ) के अनुसार होता ही है। तब उससे सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टिकी पहिचान नहीं होती 1 जानना लक्षण त्रैकालिक नहीं है, जाग्रत अवस्थाका है...मत मूच्छित अवस्थाका नहीं है। ऐसी स्थिति में आत्माके सच्चे स्वरूपको जानना हो आत्मतत्त्वका ज्ञान होना है तथा यही सम्बन्ध है उसका स्वरूप यह है कि जो अपने को 'जागी समयः जिर स्वरूप ज्ञान या चैतन्य है अर्थात् ज्ञाता दृष्टा मात्र है तथा परसे भिन्नत्व भी है इत्यादि । एकत्व विभक्त के साथ ज्ञातृत्त्व भी होना या लगाना चाहिये । बस इसी स्वरूपमें मिश्यावृष्टि भूला रहता है अर्थात् यह यह नहीं जानता कि 'मेरा स्वरूप, ज्ञान या चेतना रूप है, किन्तु वह अपने स्वरूपको संयोगरूप जानता मानता है कि मैं सब रूपया मेरे सब, इत्यादि अमेद हार सबको जानता वही मिथ्यात्व है- स्वरूपविपर्वयता है ) मुख्य भूल यहो है इत्यादि । यद्यपि उसके इनता अधिक क्षयोपशम है कि वह ११ ग्यारह अंग का ज्ञान 'हस्तामलकवत्, रखता है, तथापि उसके इस जाति का क्षयोपशम नहीं है कि वह अपने सच्चे स्वरूप ( जो ज्ञानमय या ज्ञान को ज्ञानस्वरूप है ) को समझ सके, यह न्यूनता रहतो है । अतएव आदर व उपादेयता अपने को 'ज्ञानस्वरूप, समझने की है किम्बहुना सत्त्वज्ञान या निश्चय व्यवहार आदिका सम्यक स्वरूपज्ञान, होना अनिवार्य है, तभी कोई निश्चयावलंबी या व्यवहारावलंबो सच्चे अथों ( मायनों ) में बन सकता है, शेष सब भ्रमणा है अस्तु ।।५०]!
ध्वन्यर्थ ( विशेषार्थ) लोकमें ४ चार बातें मुख्य है यथा 'निश्चयमवुध्यमानः, इससे अज्ञानी सिद्ध होता है तथा... 'निश्चयतस्तमेव संश्यते, इससे रागो सिद्ध होता है। एवं 'भाशयति करणचरणं, इससे द्वेषी सिद्ध । होता है । तथा 'स वहिः करणालसः, इससे प्रमादी सिद्ध होता है। समुदाय रूपसे अज्ञानी-रामी द्वेषी-आलसी, जीव कभी अहिंसक नहीं हो सकता, न मोक्ष जा सकता है। किन्तु इससे विपरीत-ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि) रागद्वेष रहित ( बीतरागी } अप्रमादी जीव ही अहिंसक ब मोक्षगामो होता है यह यह भाव निकलता है अस्तु ।।५०। ( समयसारकलश १११ देखिये ) १. जो जानने देखने वाला है वहीं मैं हूँ--दूसरे रूप में नहीं हूं, ऐसा निदन्वय करना या होना ही आत्मा
का यथार्थ स्वरूप जानना है या सम्यग्दृष्टिका होना है। खाली दूसरोंको उपदेश देना या आमना हो । आत्मज्ञानका हो जाना नहीं है अर्थात् उसको आत्मज्ञानी नहीं कहा जा सकता, यह तात्पर्य समझना चाहिए।