________________
१८७
सम्यकचारित्र रहे है किन्तु जगत् पिता ( कर्ता ) ईश्वर की आज्ञासे नौकर को सरह वैसा कार्य कर रहे हैं अतः वह धर्मका पालना।चोदना ) नहीं है तो क्या है ? अवश्य धर्म पालना है। हाँ उनको आज्ञाका न पालना बराबर 'अधर्म' हो सकता है। उनको दष्टिसे 'कर्मध्यका पालन करना या उचूटी पूरी करना ही धर्म है और कुछ नहीं इत्यादि तदनुसार वे धर्म हो कर रहे हैं ऐसा उनका कहना करना व मानना है अस्तु ।
___जैन न्यायसे उनके विचारों में मान्यताओंका फैधाचन समवय व खउन अन्वत एकान्तका खंडन करके अनेकान्तका मंडन और परस्पर मैत्रीका स्थापन किया जाता है । यथा
पहिली बात यह है कि यस्तु ( पदार्थ उत्पाद व्यय प्रौक्यरूप और द्रव्य गुण यावरूप अनेक धर्म वालो है। अतः उसमें अनेक स्वभाव पाये जाते हैं। सदनुसार मालिक या ईश्वरकी आज्ञा मानना भी किसी तरह धर्म है और स्वतंत्र विचार करना न्यायमार्ग पर चलना जो धर्म है । एक नीति भो है कि
''मोरपि गुणाः वाच्या दोषाः कायाः गुरोरधि'' अर्थात् गुणोंका आस्तित्व यदि अपने शत्रु में भी हो तो कथन व ग्रहण करना चाहिये और दोषों का कथन या बहिष्कार, गुरूमें हों, तो करना चाहिये यही बुद्धिमानी है। वहाँ कोई लज्जा, भय या संकोचका काम नहीं है . अअयथा बह शिष्य उगाया जाता है । हमेशा परके अनुकरण करनेका काम नहीं होना चाहिये किन्तु अपनी बुद्धिसे विवेकसे खूब सोच समझकर ही कार्य करना चाहिये तभी कल्याण हो सकता है अन्यथा नहीं। कारण कि करनीका फल तो करनेवाले शिष्य को ही मिलेगा, करनेवाले गुरुको नहीं मिलेगा 'जो करता सो भोक्ता' यह न्याय है। वेदवाक्य या वेदके कर्ताको आज्ञा' अल्पज्ञानी व रागो द्वेषी होने के कारण अन्यथा व अहितकर भी तो हो सकती है, जिसके मानने व पालनेसे धर्म न होकर अधर्म हो सकता है । देखो ! धर्म रक्षा करनेसे होता है, हिंसा या धात करनेसे नहीं हो सकता, यह यथार्थ बात है। लेकिन कथंचित् दृष्टिसे अर्थात् संबोगीपर्यायमें शुभरागसे धर्म ( पूण्यका बंध ) होता है स्थावाददष्टि या अनेकान्त दुष्टिसे विचार किया जाय तो किसी तरह 'उस हिसाको ग्राने प्राणधासको, अधर्म कह सकते हैं जो बिना इच्छा या बिना इरादा किये सिर्फ क्रिया मासे हो गई हो, क्योंकि उससे जीवका स्वभावधातरूप हिंसाकार्य नहीं होता जो खास प्रयोजनरूप है। ऐसी स्थिसिमें व्यवहारनयसे द्रव्यप्राणघास, हो जाने पर हिंसा या अधर्म कहा जायगा और निश्चयनयसे 'भावप्राणों का पान न होनेसे धर्म या अहिसा ही कहा जायगा, यह न्याय अनेकान्त दृष्टिका है, तब इसको सुन समझकर, एकान्तदृष्टि ( मिथ्यादृष्टि) बहुधा शश्रुता छोड़कर मित्रता धारण कर सकते हैं---वर व विवाद मिटा सकते हैं, यह सम्भावना सत्य है। इसमें कछकिसी नयसे उनका पक्ष भी सिद्ध होता है अतएव वे जैवमतकी मान्यताके कायल हो सकते हैं। यह स्यादाद या अनेकान्तको विशेषता है। इसी तथ्यको ख्याधिकालय { निश्चय नय ) से विचार कारनेर, लोक जीवघात हो जाने पर भी हिंसा या अधर्म नहीं होता, क्योंकि द्रव्य नित्य ( धौव्य । होमेसे कभी नष्ट ( घातरूप हिंसा नहीं होती और पर्याधाथिकनय ( व्यवहारनय ) से संयोगीपर्याय मात्रका विनाश ( हिंसा ) होनेसे, हिंसाका होना अर्थात् अधर्मका
..
.
...........................