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કેન્દ્રશ
पुरुषार्थसिद्धपा
इति वस्तुस्वभावं स्वं जानी जानाति तेन सः ।
रागादीनात्मनः कुर्यात् नातो भवति कारकः ।। १७६ ।। कलश
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अर्थ : -जो वस्तु ( आत्मा ) के स्वभावको या निर्मिमित्त स्वरूपको जानता है अर्थात् ज्ञानदर्शन ही मेरा स्वभाव ( सहज सिद्ध ) है अन्य कोई रागादि मेरा स्वभाव नहीं है नहीं है किन्तु वे सनिमित्त ( औपाधिक ) होनेसे विभाव भाव हैं ऐसा स्वभाव विभावका ज्ञाता ही 'ज्ञानी' कहलाता है | इसके विपरीत जानने वाला कभी ज्ञानी नहीं हो सकता वह अज्ञानी है । इसीलिये रागादिकको आत्माका स्वभाव न मानने वाला सम्यग्दृष्टि जीव विना स्वामित्व के परका (रागाfaar | कर्ता नहीं होता वह उन्हें भिन्न ही जानता है अतएव उनमें ममत्व भी नहीं करता, अचि करता है । यही सर्वत्र नियम है । फलतः जिन जोवोंने अपने स्वभावको पहिचान व श्रद्धा नहीं की अर्थात् यह नहीं जाना कि मेरा ज्ञान ही स्वभाव या स्वरूप है वह अज्ञानी है और वही रामादिक विभाव ) को अपना स्वभाव मानकर रागादिकका कर्ता होता है तथा संसारमें बंध - करके दुःखादि भोगता है इत्यादि खुलासा है ॥ १०६ ॥
श्लोक नं० १७६ व १७७ का सारांया है अस्तु ।
भावार्थ और समीक्षा ( भूलभुलैयाका प्रदर्शन )
पर मतमें और जैन मतमें परस्पर अमेल या विवादका खास कारण क्या है ? इस पर निष्पक्ष हो विचार करनेसे यही प्रतीत होता है कि दृष्टिभेद है अर्थात् नयविवक्षाको नहीं समझना है अथवा पदार्थको एकान्तरूप मानना है अथवा अनेकान्तरूप ( अनेक धर्म वाला) नहीं मानना है, जो प्राकृतिक नियमके विरुद्ध है । प्राकृतिक नियम, प्रत्येक पदार्थ में अनेक स्वतंत्र धर्मोका रहना है। वे धर्म किसी दूसरेकी देन या कृपा पर निर्भर नहीं हैं-- स्वयं सिद्ध हैं इत्यादि ।
ऐसी स्थिति में प्रत्येक पदार्थ में उत्पाद व्यय- प्रोव्य, ये तीनों धर्म रहते व स्वयं कार्य करते रहते हैं इसलिये ये कथंचित् स्वाश्रित हैं और उनके कार्यके समय संयुक्त दशा में अन्य सहायक निमित्त ( पर पदार्थ ) भी रहा करते हैं अतएव वे कथंचित् पराश्रित भो हैं, परन्तु व्यवहार दृष्टि ( नय ) से हैं, निश्चय दृष्टिसे बेसे नहीं है (स्वाति है ) । इसी तरह संयोग अवस्था ( संयोगीपर्याय ) में अन्य २ बातोंका भी विचार या निर्धार करना जरूरी है। क्योंकि कथनी करनी और मान्यता में भेदः रहने से परस्पर मैत्री ( संधि या एकता ) कभी हो नहीं सकती यही नियम है । एकता या परस्पर संधि कराने वाला एक अद्वितीय 'स्याद्वाद' 'अनेकान्त' न्याय हो है, जो सबमें विरोध मिटाकर अविरोध उत्पन्न करता है ।
उदाहरण के लिये पहिले एक 'धर्म' या हिंसा में हो विवाद देखिये । एकान्ती 'हिंसा या बलि' करनेको 'धर्म' मानते व कहते व करते हैं । उनके सामने 'वेदाज्ञा या ईश्राज्ञा' मौजूद है | कहते हैं कि 'धर्मार्थ हिंसा ( जीववध - द्रव्यहिंसा) करना अधर्म या हिंसा नहीं है किन्तु वह धर्म और अहिंसा ही है इत्यादि । तब हम स्वतः ही ( स्वेच्छा से ) वैसा कार्य ( जीववध ) नहीं कर