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पुरुषार्थसिद्धय
होना कथंचित् कहा जा सकता है इत्यादि मैत्रो का जनका समाधान है विचार किया जाय। फलतः द्रव्यप्राणोंके घात होनेको कथंचित् हिंसा ( अधर्म ) और भावप्राणोंका घात न होनेसे कथंचित् 'अहिंसा' ( धर्म ) कहा जा सकता है या वैसा कहना अनुचित नहीं है - संगति व समन्वय बैठ जाता है । किम्बहुना
इसी तरह नयविशारद सद्गुरु (स्याद्वादी ) नित्य अनित्य आदि सभी वस्तुगत धर्मोमें संगति बिठाल देते हैं तब विवाद नहीं रहता। लेकिन एकान्तकी धारणारूप हठ छोड़ देने पर ही कल्याण हो सकता है । उनको वेदवाक्य ( ईश्वरवाणी ) में विवाद या हलको छोड़ देना पड़ेगा कि उसमें जो कहा गया है वह अनुभव प्रमाणसे उचित सिद्ध नहीं होता वह सब राग द्वेष या अल्पज्ञानसे कहा गया है। क्योंकि 'जो कर्ता सो भोक्का' यह न्याय है । करे कोई और फल पावे (भोगे ) कोई ऐसा अन्याय नहीं हैं । अन्यथा लोककी तमाम व्यवस्था बिगड़ जायगी वगावत या अराजकता फैल जायगी इत्यादि । फलतः अनेक तरह के विवादों, मतमतान्तरों, क्रियाकाण्डों, लिगोंउपायोंसे भरे हुए ( व्याप्त ) इस लोक-सागर में भूले भटके प्राणियोंको निकलनेका सुमार्ग बतानेवाले सद्गुरु न्यायविशारद नेपाली गुरु ही हो सकते हैं दूसरे नहीं, ऐसा विश्वास करके उनके बताए हुए मार्ग पर चलना परम कर्त्तव्य होना चाहिये । धर्म ( अहिंसा) अधर्मं ( हिंसा - द्रव्यप्राणचात रूप या भावप्राणघातरूप ) इनमें कभी नहीं भूलना चाहिये | शुभरागको या मन्दकषायको धर्मकहना भी कथंचित्- किसी अपेक्षा से है, उपचारसे है सर्वथा नहीं है। कारण कि उस समय द्रव्य प्राणों का घात नहीं होता -- बाह्य क्रिया बन्दप्राय हो जाती है, अतः उस अपेक्षा से वह अहिंसा धर्मका पालनेवाला कहा जाता है अथवा अशुभ भात्र या अशुभ राम न होनेसे भी वह अहिंसक कहा जा सकता है । किन्तु उस समय स्वभावभावका घात ( हिंसा ) होनेसे वह कथंचित् हिंसक या अधर्मी भी कहा जा सकता है यह मेद समझना चाहिए | इस विविध भंग ( भेद ) वाली गुत्थी को सुलझाना अनिवार्य है किम्बहुना | शुभराग पुष्प बन्ध (धर्म) का कारण होनेसे उपचारसे उसको धर्म कहा जाता है यह खुलासा है ।
अन्यमत में-- धर्मके स्वरूप में पूर्वापर विरोध-- उन्होंने जीवहिंसा और विषयकषाय पोषणको धर्म माना है, जो अधर्म या कुधर्म है ।
देखो ! जहाँ वैदिक मतानुयायिओंने धर्मका स्वरूप
यथार्थ पशवः स्वष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । यो हि भूत्यै सर्वेषां तमाशे वः ||
इस श्लोक द्वारा बतलाया है कि यज्ञ ( पूजा हवन) के खातिर पशुओंकी हिंसा करना, उन्हें मार डालना, कोई पाप या अधर्म नहीं है किन्तु यह धर्म ही है क्योंकि यज्ञ करनेसे प्राणियों का परोपकार या कल्याण होता है अर्थात् पूजक ( यज्ञकर्त्ता ) और यज्ञके काममें आनेवाले पशुओं आदि सभीका कल्याण होता है ( सभी स्वर्गादि बैकुण्ठको जाते हैं ) इत्यादि उपदेश वेदका - भगवान् (ईश्वर) की वाणीका है ऐसा विश्वास कराया जाता है। वहीं इसके विरुद्ध भी धर्मका