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पुरुषार्धसिद्धभुषाय शान न होनेसे वे जगत्के उद्धारक नहीं हो सकते, चाहे वे लौकिक शक्तिके सबसे बड़े स्वामी क्यों न हो। लौकिक शक्ति और पारलौकिक शक्तिमें महान् अन्तर है। सच्ने धर्मके ज्ञाता और उसके धारक ऐसे सद्गुरु न्यायवान ही हो सकते हैं जो समष्टि हो नयोंके पूर्ण जानकार और कुशल संगम हों क्योंकि जो स्वयं का संहावे ही अन्य मूल हुओंको निर्भूल कर सकते हैं। ऐसा न्याय है। विचार किया जाय !
गीतामें पण्डितका लक्षण अस्य पवे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।
जानाग्निदग्धकर्माणं रामाहुः पण्डिसं अगः ॥ ||-अध्याय " अर्थ----जिस जीवके सारे काम लौकिक और पारलौकिक आकांक्षा बिना अर्थात् रुचि या कामना व नंकल्प (निदान ) से रहित हों वेगार जैसे हों तथा ज्ञान ( भेदज्ञान ) रूपी अग्निके द्वारा जो कर्मोका क्षय करनेवाला हो; उसको पण्डित बुद्धिमान लोग कहते हैं। जिसमें उक्त गुण न पाये जावें वह पण्डित कहलानेके योग्य नहीं है यह तात्पर्य है, अस्तु ।
'मा हिंस्यात् सर्वभूतानि' यह बेदवाक्य है अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियोंका घात ( हिंसा ) नहीं करना चाहिये अर्थात् किसी भी प्राणीको हिंसा करनेकी विधि या आज्ञा वेदमें नहीं है। जैनमसके अनुसार 'यज्ञार्थ पशवः स्रष्टाः' आदि श्लोकका अर्थ निम्नप्रकार हो सकता है ।
यशार्थ पशवः स्वशः स्वयमेव स्वयंभुवा ।
असो हि भूस्य पर्येषां तस्मायज्ञे वधोऽवधः ॥ __ अर्थ-स्वयम्भका अर्थ आत्मा है, जो किसीके द्वारा पैदा ( जन्म नहीं होता । यशका अर्थ, पृथक करना या त्यागना या निकालना होता है। पनका अर्थ विकारीभाव होता है, जो अज्ञानरूप या जड़रूप है। भत्तों का अर्थ कल्याण होता है। वधका अर्थ, हिसा होता है और 'अवध' का अर्थ अहिंसा होता है। तदनुसार उक्त श्लोकका अर्थ ऐसा समझना चाहिये कि आत्मामें बिकारीभाव ( रागद्वेषादि ) अपने आप { संयोगो या अशुद्ध पर्याय में स्वयं ही ) अनादिकालसे होते चले आ रहे हैं, उनको कोई परनिमित्त उत्पन्न नहीं करता, वे स्वयं अशुद्धोपादानसे प्रकट होते हैं । अतएव उनको आत्मा से पृथक करना या निकालना अत्यावश्यक है, तभी जीवोंका कल्याण या उद्धार
१. जैनमतके अनुसार यह लक्षण विवेकी सम्याष्टिका है जो संसार शरीर भोगोंसे अरुचि या विरक्ति रखते
हुए भीनोपभोगादिका दवाईकी तरह सेवन करता है, उसमें उसको रुचि नहीं रहती। उसके साथ २ ज्ञानधारा व कर्मचारा ( क्रियाकांड वगैरह ) अविच्छिन्न रूपसे चलती रहती है । अर्थात् सम्यक् श्रक्षा व ज्ञान नहीं बदलता । ( सच्चा रहता है ) क्रिया चाहे कोई भी करने लगे। सब जानसे संयुक्त रहती है इत्यादि भाव जानना चाहिए । विवेकीका नाम ही पण्डित है, अस्तु । .