________________
सम्यक चारित्र
puter enteरण आगेके इलोकमें भी किया जाता है ।
भावार्थ -- इस श्लोक में भी दो तरह का फल बतलाया गया है। लेकिन यहाँ स्थितिबंध से सम्बन्ध है अर्थात् किसीको दुःख बहुत समय तक भोगना पड़ता है और किसीको अल्प समय तक भोगना पड़ता है यह भेद है ।। ५२ ।।
आचार्य परिणामोंकी ही विशेषतासे फलभेव बताते हैं-
एकस्य च ती दिशाति फलं सैव मन्दमन्यस्य । व्रजति सहकारिणोरपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकाले ॥ ५३ ॥
पद्य
एक अकेला हिंसा करता ती दुःख वह पाता है।
11
कोई अलग करता अल्प दुःख वह पाता airat free हिंसा करते फल अनेक विधिः पाते हैं। क्रिया एक सी होने पर भी भाव विचित्र सा लाते हैं ।। ५३ ।
rrer अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ एकस्य सा एव तीव्रं फलं दिशति ] एक ही सरहको Armierre द्रव्यहिंसा, किसीको घोर असा दुःख व ( पोड़ा ) देने वाली होती है | खोटामहा पाथका बंत्र होनेपर अपार नरकादिके दुःख उसे भोगना पड़ते हैं ) एवं [ अन्यस्य सा एवं मन्दं फलं दिति ] वही वैसो हो प्राणाघात रूप हिंसा किसीको थोड़ा मा सरल दुःख देने वाली ( परभवमें ) होती है । और [ अन सहकारिणोवं फलकाले हिंसा वैचित्र्यं यजसि ] इसी लोकमें साथ-साथ हिंसा करनेवाले दो जीवों को भी उदय कालमें भिन्न २ प्रकार फल देती है—एक प्रकार ( समान ) फल नहीं देखी अर्थात् भावोंके अनुसार किसी हिंसकको घोर असावारूप कल देती है तो किसीको सामान्य असातारूप फल देती है यह भाव है । यह सब विचित्रता ( फल भेदकी ) परिणामों (भावों) की ही बदलत समझना चाहिये ।
१७५
भावार्थ - इस श्लोक में दो सरहका फल बतलाया गया है । यहाँपर अनुभागसे सम्बन्ध है अर्थात् किसोको जोरदार असह्य दु:ख भोगना पड़ता है और किसीको मामूली ( साधारण ) दुःख ( क ) भोगना पड़ता है यह भेद है । साथ २ हिंसा करनेवाले दो आदमियोंको अपने २ परिणामों के अनुसार फल मिलता है, तीव्र कषायवालेको तीव्र दुःख और मन्द कषाय वालेको मन्द दुःख भोगना पड़ेगा यह तात्पर्य है ।
यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ॥ ३५ ॥ कल्याणमन्दिरस्तो
अर्थ - विना भाव अर्थात् भक्तिरूप अन्तरंग परिणामोंके अभाव की जाने वाली क्रियामात्रका फल नहीं मिलता वह व्यर्थ ( निष्फल ) जाती है । अतएव भाव सहित किया करना चाहिये यह तात्पर्य हैं ।
Ji
NAWAPUR.
40-loan &
(MAHARASHTRA)