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सम्यकचारित्र कांडको जो कि शरीरादि परके अधीन है स्वाधीन व हितकारी नहीं समझता-मोक्षका साधक नहीं मानता, सिर्फ निमित मात्र मानता है। इसके सिवाय वह द्रध्यदधिर निश्चयनय ) से आत्माको सिद्ध समान शुद्ध (परमे भिन्न-गगादिरहित ) मानता है और पयाय द्वाष्टो अर्थात् संयोगी पर्यायके समय, आत्माको व्यवहारनयसे अशुद्ध भी मानता है, ऐसा निर्धार करता है, और अबादि की भूल मिटाता है । भूल मिटने पर वह मोक्ष-मार्गी हो जाता है और भूल रहने तक वही संसार-मार्गी बना रहता है। अस्तु यह सब कथन संयोगी पर्याय में रहने वाले जीबों को अपेक्षास है अर्थात् अशुद्ध व संसारस्थ जीवोंको यथार्थ ज्ञान करानेके लिए है, इतना मात्र प्रयोजन है । फलतः निश्चयका आलम्बन ( ग्रहण करना और क्ष्यवहारका आलम्बन छोड़ना अनिवार्य है। निश्चयके आलम्बनसे सम्यग्दष्टि के ऊपर । उसकी आत्मामें ) बड़ा भारो प्रभाव पड़ता है, अर्थात् संसार शरोर भोगादि सब परसे व उनके संयोगसे इकदम अमचि करने लगता है व यथाशक्ति उन पृथक भी होता है, अर्थात् उनका त्यागकर परिग्रह रहित कीतराग दिगंवर मुनि बनता है इत्यादि ।
निश्चय और थ्यवहार के भेद ( प्रकार) (क) निश्चय के वो भेव-{१) शुद्ध निश्चय, द्रव्यग अखंडता, पर से भिन्मतारूप, (२) अशुद्ध निश्चय, पर्यायगत, संयोग रहते हुए भी संयोगी पर्याय में भिन्नतारूप, अर्थात् तादात्म रहित अवस्था । यहाँ पर, पर द्रव्यका संयोग होना अशुद्धता जानना और पराकर तादात्मरूप न होकर पृथक् रहना, शुद्धतारूप निश्चय समझना चाहिए ।
(ख) व्यवहार के भेद--(१) द्रव्यगत व्यवहार, अर्थात् अखंड द्रव्यमें भेद कल्पना करना इसीका चाम भेदाश्रित व्यवहार है । (२) पर्यायगत व्यवहार, अर्थात् पराश्चित व्यबहार व पर्यायाश्रित व्यवहार (भेद) । इसतरह भेदाश्रित, पराश्रित, पर्यायाश्रित ऐसे तीन तरहके व्यवहार शास्त्रों में आहे गये हैं । यहाँ पर आश्रित का अर्थ अधीन या अपेक्षा समझना और व्यवहार का अर्थ भेद समझना चाहिए इत्यादि।
(ग) पर्यायके भेद-(१) शुद्ध पर्याय, गायोगी पर्यायसे रहित द्रव्य की स्वतंत्र पर्याय, अथवा रागादि विकार रहित शुद्ध पर्याय । (२. अशुद्ध पर्याय, अर्थात् परके संयोग सहित पर्याय, अथवा रागादिविकार सहित पर्याय, ऐसा जानना ।
आचार्यका अन्तिम लक्ष्य (प्रयोजन मलमें भूल मिटाने एवं आत्मोद्धार कामे कराने का रहा है। सबसे बड़ी निश्चय व व्यवहार की भूल-मूल भूल-उसके मिटाये बिना संसारी जन यह समझ ही नहीं पाता कि यह संसार. ( शरीर धनादि ) क्या है और इसका संबंध हमसे क्या है ? बह भूला हुआ जोब सभी संयोगी चीजोंको अपना मानता जानता है और उनमें एकत्त्व बुद्धि करके रागद्वेषादि विकारभाव किया करता है एवं उनके संयोग वियोग होने पर सुख दुःख मानता है, जिससे उसका संसार मा परिभ्रमण और बढ़ता ही जाता है, घटता नहीं है, इत्यादि सब गलतीका फल है। आत्मा ( जीव)