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पुरुषार्थापाय
जैसे कि क्रियाको करना व्यवहार है और उसको बन्द कर देना ( छोड़ देना निश्चय है, ये दोनों गलत धारणाएँ हैं । किन्तु वस्तुका ( आत्माका ) शुद्ध स्वरूप उपादेय है, यह मय है और अशुद्ध स्वरूप हेय है, यह निश्चय है। तथा अशुद्ध स्वरूप उपादेय है अबलम्वनीय है यह व्यवहार ( अभूतार्थ है। क्रिया निश्चय व्यवहाररूप नहीं है, भाव हैं इति ।
(२) व्यवहार, पदार्थ के अशुद्ध । संयोगी पर्याय सहित ) स्वरूपको कहते हैं । उसको ही यथार्थ ( सत्य ! जानना व्यवहारमय कहलाता है। जो है तो अशुद्ध ज्ञान और हेय, किन्तु कथंचित् ( संयोगवशामे व हीनया में ) उपादेय भी है। तदनुसार ज्ञानी जीव योग्यता अनुसार प्रवर्तता है अर्थात् सत्यको जानता हुआ व्यवहार (असत्य) को छोड़ता है, अथवा विपरीत धारणा (श्रद्धा) को निकालता है किन्तु बाहिरी को वह वहार समझता है न, उसके छोड़नेको निश्चय समझता है, न उसको इकदम छोड़ता है, वह तो वस्तुका परिणमन है जो होगा ही ! हो उसका आश्रय लेना, अर्थात् उसके द्वारा मेरा अपना कार्य सिद्ध होना मानना मिथ्या है | क्योंकि वे सब निमित्त कारण हैं जो हमेशा सहायक माने जाते हैं-उत्पादक या परके कर्ता नहीं माने जाते, यह सिद्धान्त है । फलत: अपेक्षासे भेदज्ञानको भी व्यवहारज्ञान कहा जाता है, और जब वही निर्भेद या निर्विकल्परूप हो जाता है तब उसीका नाम निश्चय ज्ञान पड़ जाता है । अतएव भेद ज्ञान रूप व्यवहार ज्ञान भी सम्यग्दृष्टि जीवको प्रारंभ में कथंचित् उपादेय है सर्वथा नहीं है। इसके विपरीत परके साथ ( संयोगावस्था में ) एकता या अभिन्नता बताने वाला ( मनवाने वाला ) ज्ञान व्यवहारज्ञान या मिथ्याज्ञान अभूतार्थ ज्ञान कहलाता है जो क्षेत्र ही है । किन्तु भेदज्ञानरूप अनुपचरित सद्भूतव्यवहारज्ञान या नयरूप ( अंशरूप ) ज्ञान ( परस्पर सापेक्ष हों तो ) कथंचित् उपादेय है ऐसा समझना चाहिए। इस प्रकार निश्चय और व्यवहारका ज्ञान हुए विना कभी भी Freeम्बी नही हो सकता, न उसका उद्धार ही हो सकता है यह सारांश है | यहाँ इस लोक में बतलाया गया है । निश्चय और व्यवहारको स्वयं समझे बिना, अर्थात् भाव भासना या उनका स्वरूपज्ञान या अनुभव ( स्वानुभव ) न होते हुए, ऊपरी ऊपर ( बाहिरसे या दूसरों के कहने आदि ) नामादि जान लेने से कुछ लाभ नहीं होता, किन्तु जब स्वयं उसकी आत्मामें सम्यक् ज्ञानका उदय अर्थात् भेदज्ञानका विकास ( उजेला होता है निरालंबी तभी वह स्वानुभवी होकर सम्यग्दृष्टि बनता है, और निश्चय व्यवहार की संगति व उपादेयता ता को भी समझता है, एवं निश्चय और व्यवहारका यथार्थ ज्ञान भी उसकी होता है, तथा आत्मज्ञानी माना जाता है। फलतः समयसारकी गाथा नं० १२ की क्षेत्रकगाथा "जर जिणमयं पविञ्जड, सामाववहार सि-मुयह। एक्केपविणा ब्रिग्ज तिल्यं, अण्णेणए उण तच्च के अनुसार सम्यग्ज्ञानी आत्मा का दशा होती है । अर्थात् वह अपनी योग्यतानुसार ही अपनी बुद्धिसे हमेशा कार्य करता है । साधक अवस्था में रहते हुए वैसा हो शक्य व संमत्र है । सारांश -सम्यग्दृष्टि विवेका अनेकान्ती आत्मज्ञानी ही निश्चय व्यवहारका ज्ञाता हो सकता है, अन्य एकान्ती अनात्मज्ञानी, निश्चयहारका ज्ञाता नहीं हो सकता यह नियम है | इसीलिए वह freeयको स्वाश्रित । स्वाधीन ) मानता व जानता है, और व्यवहारको पराश्रित ( पराधीन) मानता व जानता है । किन्तु क्रिया