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पुरुषार्थसिद्धयुपाय
जीवकी रक्षा करना धर्म है, यह सिद्ध होता है । इस तरह संक्षेप में पूर्व आशंकाका उत्तर समझ लेना चाहिये ।
उपसंहार
सारांश-वोलरागता या शुद्धोपयोग तो सर्वोत्कृष्ट उपादेय ( ग्राह्य ) है ही. अतः उसका प्रयत्न तो करना ही चाहिये, जिससे राग द्वेषादिजन्य व प्रवृत्तिजन्य हिंसा न हो अर्थात् अहिंसा परम धर्म या निश्चय धर्म, प्राप्त हो-- और उससे मोक्ष प्राप्त हो, क्योंकि वही मोक्षका मार्ग है। जो रत्नत्रयरूप ( सम्यग्दर्शनादिरूप ) है | किन्तु जब उससे परिणामच्युत हो । स्थिर न रह सके ) तब परिणामको शुभराग में लगाना भी उचित है- अर्थात् गिरती अवस्था में वही लाभकर है, क्योंकि अशुभ विषयकपायसे वह बच जाता है । पुण्यका ) बंध होता है पापका बंध नहीं होता, इत्यादि । यतः भूमिकानुसार सभी कार्य हुआ करते हैं ऐसा वस्तु स्वभाव है । व्यवहार हेय है और निश्चय उपादेय है ऐसा बोध ( ज्ञान ) और भावना ( रुचि ) सम्यग्दर्शन के प्राप्त होने पर ही होती है' ॥ ४९ ॥
पूर्व श्लोक में निश्चयकी मुख्यता व उपादेयता तथा व्यवहारकी गोणता व हेयताका कथन किया गया है, परन्तु प्रश्न उठता है कि वह कब और कैसे संभव | या प्रभावशाली ( कामयाब ) हो सकता है ? इसका संक्षेपमें उत्तर दिया जाता है कि ज्ञान सहित उनका उपयोग करनेसे । तद्रूप वरतने से ) लाभ हो सकता है अन्यथा नहीं । अर्थात् पेश्तर स्वरूप जानकर अपनाने से लाभ हो सकता है ।
निश्चयमबुध्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते ।
नाशयति करणचरणं स बहिः करणालसो बालः ॥ ५० ॥
पा
निश्चयका नहि ज्ञान जिसे पर निश्चयधारा मानत है वह अज्ञानी और आलसी जगमें हँसी करावत है ॥ मोक्ष नहीं मिलता है उसको शुद्ध बुद्ध चित निश्चय व्यवहारज्ञान होय जय मोक्ष महापद पाता है ॥ ५० ॥
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केवल क्रियाकांडको तजना अरु निश्चलसा हो जाना । मनधारकर आँख मीचना भोजन पान रुचि करना ||
१. सर्वत्राध्यवसानभेत्रमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनैः, तन्मन्ये व्यवहार एवं निखिलोपन्याश्रयत्याजितः 1 सभ्य नियमेकमेव तदमी निष्कंपमाक्रम्य किं, शुद्धानने महिम्नि न निवन्धन्ति सन्तो तिम्॥ १७३॥
समयसारकलश |