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CUMARISHRA
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पुरुषार्थसिद्धपुपाय होनेसे रंचमात्र ( थोड़ी भी हिंसा या हिंसाका पाप नहीं होता या नहीं लगता ऐसा सिद्धान्त है [सदपि परिणाम विशुदये हिंसायननिजि काय तथापि ( तो भी) परिणामोंकी निर्मलताके अर्थ ( शुभ परिणतिके लिए ) हिमाके निमित्तों ( आधारों-स्थानों) का त्याग करना अर्थात् उनसे दूर रहना-सम्बन्ध विच्छेद करना या उन्हें नहीं सताना, नहीं मारना, उनका बचाव रखना, यह भी कर्तव्य है ( अनिवार्य व उचित है ) इत्यादि ।।४।।
भावार्थ... पदार्थ या वस्तुरः। किरा ( कानिग की तरह होता है (१; निश्चयनयसे । २) व्यवहार नयसे, अथवा सामान्यरूपसे व विशेषरूपसे । तदनुसार आचार्य महाराज हिंसा पापके विषय पहिले निश्चयनय र अशुद्ध निश्चय ) की अपेक्षासे खुलासा ( निर्धार ) करते हैं क्योंकि प्राणी उसी में बहुधा भूले हुए हैं ( भ्रभमें पड़ रहे हैं । हिंसा दो तरहकी होती है (१) स्वाचित या स्वकीय हिसा (२) पराश्रित या परकीय हिंसा। उनमें से आचार्यने ऊपरको लाइन ( श्लोककी पहिली पंक्ति या लकीर ) में स्वाधित (निश्चम ) हिसाका प्रदर्शन किया है और दुसरी लाइनमें पराश्रित ( व्यवहारी ) हिसाका प्रदर्शन किया है, अतएव उसीका स्पष्टीकरण किया जाता है उसको यथार्थ समझना चाहिए जिससे सब भ्रम मिट जायगा इत्यादि ।
हिसाका लक्षण-आगर्मशास्त्रोंमें प्राणोंका घात ( बघ-क्षय-मरण-हत्या आदि ) होना हिंसा बतलाया गया है अर्थात हिंसाका लक्षण प्राणोंका घात होना है, जो सामान्य है। उसमें भाव प्राण व द्रव्यप्राण दोनों गभित हो जाते हैं, अथवा अन्तरंग और बहिरंग सब शामिल हो जाते हैं। तदनुसार निश्चयनयसे अपने ( स्वाचित) भावप्राणोंका घात होना अर्थात् जीवके स्वभावप्राण (ज्ञान-दर्शन आदि ) का घात होता हिंसा कहलाती है. कारण कि उसीका फल जीवको मिलता है अर्थात् उसी के अनुसार बंध होता है और सुख दुःख, आदि भोगना पड़ता है, तथा वैसी सामग्री मिलती है ( इष्ट. अनिष्ट द्रव्य क्षेत्र कालका संयोग वियोग होता है ) इत्यादि ।
नोट-यहाँ पर प्राण, परिणाम, भाव, स्वभाव, सबका एक ही अर्थ है ऐसा समझना चाहिए । तदनुसार परिणाम ही बंधके निमित्तकारण बसलाये गये हैं। जैसे परिणाम होते हैं वैसा ही फल लगता है अस्तु, सभी द्रष्य अपने-अपने भावोंकी जिम्मेवार है, कोई किसीके भावोंकी नहीं यह सिद्धान्त है।
ऐसी स्थिति में अपने भावरूप प्राणोंका या स्वभावभावका धात होनेसे ही हिंसा होती हैं या हिंसा पाप जॉबको लगता है, उसीका वह संयोगो पर्यायमें स्वामी कर्ता या भोगता है किन्तु अन्यका अर्थात् परजीव आदिके घालनेका इरादा या संकल्प या भाव ( परिणाम न होने पर
१. प्रमत्तयोगात् प्राणश्यपरोपणं हिंसा । ---तत्त्वार्थपुत्र ।। --१३॥ २. परिणामेव कारणमाहुः खलु 'पुण्यपापयोः प्राज्ञाः, तस्मात् पापापचयः पुण्योपचयश्च कर्तव्यः ॥२३॥
-----आत्मानुशासन, गुणभद्राचार्य । रागहे पनिवृत्तिः हिंसादिनिवर्तना कृता भवति । अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नृपतीन् ॥४८॥
रत्नकरण्डनावकाचार।