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पुरुषार्थसिद्ध पाथ आचार्य दूसरी तरहसे स्वाश्रित हिंसाका लक्षण बतलाते हैं
( रुचि व ग्रहणरूप दो भेद ) । हिंसायामविरमेणं हिंसापरिणमैनमपि भवति हिंसा | तस्मात प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ॥४८॥
पद्य
हिंसासे निर्धृत न होना, हिंसारूप एक जालो । हिंसा सलंग्न जु होना, हिंसारूप वित्तिय मानी । दोनों रूप प्रमादयोगर्म रहते हैं यह ध्रुव जानो।
प्राणघात निजपरका होता यह उसमें तुम सरधानो ।।४।। अगाय ---आचार्य कहते है कि सायाविरमण अपि हिंसारिणमनं हिंसा अपति ] हिंसा करनेका त्याग नहीं करना अर्थात् हिसासे अचि नहीं करना { रखना ) और हिंसामें जब तव प्रवृत्ति करना, ये दो रूप हिंसाके होते हैं ( अनिवृत्तिरूप व प्रवृत्तिरूप) [ सस्मात ] इसलिये [ प्रमत्तयोगे ] प्रमाददशामें : नित्यं शणव्यपरोपणं भवाश ] हमेशा अपने और अन्य जीवोंके प्राणोंका घात हुआ करता है यह पक्का है। अतएव प्रमाद बड़ा प्रबल व बुरा शत्रु है, उसे त्याग देना चाहिए ।। ४८ ।।
भावार्थ--आचार्य महाराजने अपना ध्यान हिंसा अहिंसा के विषय में केन्द्रित करके अपूर्व प्रकाश डाला है, जो ध्यान रखनेके लायक है। इस ग्रन्थको अपूर्वता इसीसे जाहिर होती है। वास्तव में जबतक किसी कार्यसे अरुचि न हो और न उसका त्याग किया जाय तबतक अपराध नहीं छूटता--लगता ही रहता है । फलतः अपराध छूटने के दो ही मुख्य उपाय हैं (१) अरुचि करना ( विरक्ति या वैराग्यका होना ) (२) यथाशक्ति त्याग करना ( सम्बन्ध विच्छेद करना), इस ऐसा होना ही संसारसे छूटनेकी निशानी है। प्रारम्भमें सम्यग्दृष्टिके यही सब हुआ करता है, जिससे वह मोक्षमार्गी" बनता। इसके विपरीत जिसके उक्त दो कार्य न हों उसको संसारमार्गी समझना चाहिये । बिना अरुचिके व त्यागके यदि प्रवृत्ति न भी हो तो भी वह अपराधी रहा करता है कारण कि मनमें या भावों में प्रतिज्ञा न होनेसे, कोई पतयाबरा नहीं रहता कि यह कब क्या कर डाले, इत्यादि खतरा बना रहता है। इससे शक व सन्देह मिटाने के लिए (धोखा न देने के १. विरक्ति या निवृत्तिका नहीं होना । ३. हिसार्ने प्रवृत्तिका होना। ३. हृदय या चित्त। ४. स्वाग नहीं होना। ५. प्रधुति होना। ६. चित्त या हृदय ।