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सम्यकचारित्र
१५ प्राण्यन्तराणा हिंसा जायेत म वा इति ] आचार्य कहते हैं कि कषायभाव होने के पश्चात् यदि दूसरे जीवोंका धात हो या न हो, उससे हिंसा पाप नहीं लगता, उसका फल उन्हींको लगेगा, जैसे उनके कषायभाब होंगे इत्यादि निर्धार किया गया है। अपने भावप्राणोंका धात होना ही यथार्थ में हिंसा है जो स्वाधीन है ।।४७॥
भावार्थ-कषायका अर्थ कसनेवाला या बाँधनेवाला होता है। अथवा आत्माको उकीरनेवाला या जुताईको तरह गड्ढा करनेवाला (छेद करनेवाला) या कम बीजको उत्पन्न करनेके योग्य बनाने वाला होता है अतएव वह विकार है हानिकारक है। उससे उसी समग्र जीवके स्वभाव का घात होता है, अन्य समय नहीं, उसके पश्चात् कर्मबन्धन आदिका फल मिलता है। इस तरह शृंखला चाल हो जाती है। यही विडम्बना है-यही आद्य हिंसा है। दूसरे जीवों का घात होना न होना हमारे या किसीके वशका नहीं है, वह उसकी आधु के संयोग-वियोग अधीन है, जब जो होना होगा तभी होगा आगे पीछे नहीं, यह नियम है। यह सब निश्चममय की कथनी है, इसमें भूल नहीं होना चाहिये। इसके विपरीत व्यवहार दृष्टि के समय, अन्य जीबके घात हो जानेको हिसा मानना व कहना या करना, यह भी सत्य है। कारण कि बह पराश्रित है....परका आश्रय था सहारा लेकर काम चलाता-लोकालोकनिक करता है। और यह सनातनी रोति है कोई सर्वथा नई बात नहीं है. जनपद सत्य है। उससे जीवरक्षा या दयारूप व्यवहार धर्म होता या पलता है जो न्यायके अनुसार 'लोकव्यवहार' या लोकाचारमें सत्य हो माना जाता है। जैसा चल पड़ा सो चल पड़ा, उसमें विवाद नहीं होता, वह भी एक अपेक्षा है।
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- लोकव्यवहारमें अन्य जीवोंके घात करनेको हो । परघातको ही हिसा माना जाता है जब कि निश्चयमें अपने खुदके स्वभावभावोंके घात करनेको हिंसा माना व कहा जाता है, इस तरह महदन्तर है तथापि निमित्तनैमित्तिक दष्टि रखकर काचित् संगति बैठा ली जाती हैं, अत. एव दोनों वर्जनीय हैं। कषायका उत्पन्न होना और उसकी पूर्ति करना दोनों अपराध है ! कारण कि जबतक पूर्ति नहीं हो जाती, तबतक आकुलता-चिन्ता बनी रहती है, उससे क्षण क्षण आस्रव व बन्ध होता है, और पूर्ति हो जानेपर इष्टानिष्ट विकल्प उठते हैं, उनमें रागद्वेषादि या हर्षविषादादि भाव होते हैं, तब पुनः आन्नवादि होते हैं, इत्यादि परम्परा चलनेसे जोब निरपराध नहीं हो सकता । अतएव निरपराध होने का यही एक उपाय है कि वह कषाय भावोंका त्याग कर देखें इत्यादि । अर्थात् पराश्रित व्यवहार या व्यवहारधर्म ( शुभ रागरूप या करुणा भक्तिरूप) का अभावं होनेपर, एवं स्वाश्रितधर्म ( वीतरागता ) के प्रकट होनेपर ही सारी एवंझटें छूट सकती हैं। जो अनादिसे संयोगी पर्यायमें हो रही है, अन्यथा नहीं, यह कटु सत्य है.वस या निश्चय कथनः है। इसीसे इसको हो अन्तमें उपादेव बतलाया है तथा व्यवहारको हेय बतलाया गया है । हीन दशाके समय ही कथंचित् अपेक्षासे व्यवहारको उपादेय बतलाया गया है, परन्तु शतके साथ बताया है। अर्थात् उसको वह अचिपूर्वक बलात्कारसे विगारीकी तरह उपादेय मानता है या मानना . नाहिये, तभी कल्याण होगा ।।४७t!