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सम्यक चारित्र
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मारकाट हुआ करती है । गृहस्थाश्रम में से सभी कार्य प्रयोजनवश हुआ करते हैं। परन्तु पदके अनुसार करने में लोकापवाद नहीं होता, फल भावोंके अनुसार लगता है इत्यादि ।
नोट - विरोधी हिंसाका उद्देश्य भी अधिकतर आत्मरक्षा करने का है किन्तु शौकिया या शिकार खेलनेका नहीं है, जो अर्थदंड शामिल हैं। सम्यग्दृष्टं जैन गृहस्थ वैसा कार्य नहीं कर सकता, यदि कोई कहता व करता है तो उसके लिये वह लाञ्छन रूप है । यद्यपि आत्मरक्षा व प्रजारक्षाका उद्देश्य है तो रागपरिणति, किन्तु पदके अनुसार वह वर्जनीय नहीं है, न्यायके अनुसार दयाको व्यवहारधर्म बतलाया गया है । इतने पर भी वह अप्रयोजनभूत हिंसा आदिक भीका त्याग रहता है, वह नहीं करता, उसकी न्यायवृत्ति रहती है, वह सदेव पदके अनुसार कार्य करता है। श्रद्धा और कर्त्तव्य दोनॉपर उसकी दृष्टि रहती है। वह एक ( एकान्त ) दृष्टि नहीं रखता यह सब विचारणीय है अस्तु ।
हाथ
कार्यपror | व्यक्त - प्रकट ) कषाय और योगके रहते समय अर्थात् क्रोधादिकषायों के सद्भावमें जीव दूसरे जीवोंको कष्ट पहुँचाता है और कभी-कभी अपने ही अंगोपांगों को कष्ट देता है, यह बाह्य हिंसा देखनेसे आती है | ( आत्मघात व परघासरूप ), अतः वह लोकमें हिंसक माना जाता है यह व्यवहार है । किन्तु निश्चयसे कपायोंके उदयकाल में जो परिणाम खराब होते हैं उससे हो जीवका स्वभाव भाव नष्ट होता है वही हिंसा कहलाती है, उसीका फल मिलता है ।। ४३ ।।
आचार्य संक्षेप में अहिंसा व हिंसाका लक्षण बताते हैं ( स्पष्टीकरण )
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पतिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ ४४ ॥
पद्म
रागदिक विकार भावोंका होना नहीं 'अहिंसा' है । और उन्हीं का हो जाना पुन नाम उसी का 'हिंसा' है ॥ इससे जिनवाणी कहती है जिसे अहिंसा हो प्यारी हो । रागादिक से दूर रहे as itक्ष मार्गका अधिकारी ||४४ | ३
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ खलु रामदीनां भगादुर्भावः अहिंसा मति ] निश्चयसे रागादिक विकारी भावोंका आत्मामें नहीं होना, वहीं अहिंसा है, क्योंकि विकारके न होनेसे हिंसा ( स्वभावका घातरूप ) नहीं होती, तथा [ तेषामेवोत्यत्तिः हिंसा इति जिनागमस्य संक्षेपः ] रामादिक विकारी भावोंकी उत्पत्ति होना ही हिंसा' है क्योंकि उनसे आत्मा के स्वभाव भावका घात
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