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सम्यक चारित्र
पद्य
द्रव्यप्राण अरु सावत्राण दो प्राण होत हैं जीवोंके । उनका घात कियेसे देखो हिंसा होती लोगोंके ॥ कारण इसके दो हैं भाई योग-कषाय उभय जानो 4 दोनोंके स्थागेसे वीरो धर्म अहिंसा पहिचानो ।। ४२ ।।
अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ खलु यत् द्रव्यभावरूपाणां प्राणानां कषाययोगात व्ययरोपण करणं सा सुनिश्चिता हिंसा भवति ] निश्चयनयसे कषाय और योगके निमित्तसे जो द्रव्य और भाव दोनों प्राणोंका घात ( विनाश-क्षय ) होता है या किया जाता है असलमें हिंसा वही है, हिंसापाप उसोको कहते हैं, यह संक्षेप लक्षण है, इसमें सब भेद आ जाते हैं। उससे बचना चाहिये ।। ४३ ।।
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भावार्थ - लोकाचार में द्रव्यप्राणोंके ( ५ इन्द्रियों, मन वचन काय, श्वासोच्छ्वास, आयु १० के ) घात करनेको अथवा जीवोंके मार डालनेको हिंसा ( हत्या ) पाप कहते हैं किन्तु आगममें ( भावाचार में ) परिणामोंके खराब होने मात्रको हिसा कहते हैं। सिर्फ १-- द्रव्यप्राणघातरूप द्रव्यहिंसा की है, और भावप्राण परिणाम घात भावहिंसा कहलाती है यह भेद है । जैन शासन में भार्याहिंसा मुख्य मानी जाती है, क्योंकि आत्मा ( जीवद्रव्य ) का सम्बन्ध साक्षात् है तथा वह स्वाति है । द्रव्यहसा, इसलिये गौण ( अमुख्य ) है कि भावपूर्वक यदि वह ही तो हानिकारक होती है अन्यथा नहीं । बिना भाव या संकल्पके उसको हिंसा मानना या कहना:उपचारमात्र है । यही बात पूर्वाचार्योंने भी कही है । यथा
'प्रमन्त्रयोगात प्राणव्यपरोपणं हिंसा । तस्थार्थ सू० ७-१२ ।
अर्थ :- प्रमाद अर्थात् कषायके सम्बन्धसे ( कषायपूर्वक ) योगद्वारा द्रव्यप्राणोंका घात होना हिंसा कहलाती है (बिना कषायके नहीं ) इत्यादि ।
परिणाममंत्र कारणमाहुः खलु पुण्यपापयो प्राज्ञाः || २३ || आत्मानुशासन
अर्थ :- पुण्य और पापबंधके कारण अर्थात् अहिंसा ( दया ) और हिंसा ( घात ) के कारण जीवके परिणाम ( अशुद्ध भाव - शुभ-अशुभरूप कषायभाव ) ही होते हैं, अन्य नहीं। ऐसा
समझना ।
पापं भुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि ।
अचेतनाकषाय च वध्येयातां निमित्ततः ॥ ९२ ॥ तमीमांसा
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अर्थ --- बिना कषायरूप ( शुभ व अशुभरूप ) अभिप्राय के ( संकल्प या इरादा के ) पुण्य और.... पापका बन्ध कदापि नहीं होता । नहीं तो अचेतन पदार्थ और वीतरागो आत्मा भी निमित्तताको
१. जैनो ।
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NAWAPUR. MAHARASUTRA)