________________
१५६
पुरुषार्थसिद्धपुपाय काय द्वारा ) वैसा आचरण करता है अर्थात् वैसी क्रिया करता है। इस तरह भीतर बाहिर दोनोंसे शुद्धता ( पृथक्ता ) करके मोक्षको जाता है। भोतर अरुचि होना पैराग्य परिणामोंका होना 'भावचारित्र' है और बाहिर सदाचाररूप क्रिया-आचरणका होना 'द्रव्यचारित्र' है ( व्यवहार चारित्र है ) ऐसा समझना। यति-श्रावक, दोनों ही पात्र यथायोग्य देश-काल-पदके अनुसार कर्य करते हैं व करना चाहिये-सीमाको उलंघन करना महान् अपराध है, उसको स्वयं देखे, दूसरोंकी प्रतीक्षा न करे । 'संयम रसन सम्हार, विषयचोर बर फिरत हैं। यह वास्तवमें कर्तव्य है।
सकलचरित्रके, सामायिकादि ५ भेद हैं जो कहे गये हैं 1
देशचरित्रके ५ अणुव्रत, ३ गुणवत, ४ शिक्षाद्रत भेद हैं। जिनसे ११ प्रतिमाएं बनती हैं। प्रतिमाधारी सब नैष्टिक श्रावक कहलाते हैं. उनके ११ भेद होते हैं। अर्थात् श्रावक के...( १ ) पाक्षिक (२) नैष्ठिक ( ३ ) साधक ऐसे तीन भेद होते हैं। पाक्षिक श्रावकका दर्जा जघन्य पक्षका है, वह दृढ़ श्रद्धालु होता है किन्तु प्रती नहीं होता, फिर भी अभ्यास रूपसे वह अतिचार सहित मूलगुण वगैरह पालता है। उसकी अधिक सराग अवस्था होनेसे सम्यग्दर्शनमें भी अतिचार लगते हैं, तुष्ट दुर्जन न्याय से श्रद्धा न रहते हुए भी' कई कार्य पराधीनतासे इच्छाके विरुद्ध उसे करना पड़ते हैं, जिनका वह खेद करता है। परन्तु नैष्ठिक श्रावक हीनरागी होनेसे लोकविरुद्ध कोई कार्य नहीं करता, सबको हेय समझता है। साधक श्रावक, सब काम अन्त में छोड़ देता है व सल्लेखना धारण करता है। विधिपूर्वक सल्लेखना धारण करना कठिन कार्य है, परन्तु वह एक अवश्य कर्तव्य है, व्रती सो करता ही है किन्तु मुमुक्षु अवतीको भी प्रयत्न करना चाहिये, वह जीवनको सफलता है। सल्लेखनाका अर्थ समाधिमरण होता है, जो कषायवश नहीं किया जाता अतः वह आत्मघात या आत्मवध नहीं हो सकता---आत्मघात तीव्र कषाय वश होता है किन्तु समाधिमरणमें कषायका अभाव या मन्दता रहती है वह धर्मार्थ रागद्वेष छोड़नेके अर्थ--- अर्थात् वीतरागता प्राप्त करने के अर्थ ) शरीरादि परिग्रहका त्याग निर्मोह होकर करता है, यह भाव है॥४१॥
अथ लक्षण प्रकरण
१-हिंसा पापका स्वरूप आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात् सर्वमेव हिंसतत् । अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥४२।।
१. स्वभाव या शुद्धोपयोग । आत्मघातका नाम ही हिंसा' पाप है-यह निश्चयनयका ( स्वाश्रित ) कथन
है। परघातको 'हिंसा' कहना, यह व्यवहारनयका ( पराश्रित ) कथन है। स्वाश्रित पराश्रितका भेष । है। इसको अवश्य समझना चाहिये ।