________________
सम्पकचारित्र
पश्च सम्बग्दृष्टि सम्यग्ज्ञानी बनकर जो मिर्मय होते। वे ही जीव यथारथ देखो सग्यचारित्र हैं धरते ।। अतः मुमुक्षु जीवोंका, कर्तव्य उसे है अपनामा ।
यसः विना शरिन मोक्ष नहिं, भव्यो इसे न विसराना ॥३॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [विगलिगदर्शनमोह: समं असशानविदिततत्वाथैः नि:प्रकम्पैः ] जिन जीवोंका दर्शनमोहकर्म नष्ट हो चुका हो अर्थात् जो सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर चुके हों तथा साथ ही सम्यग्ज्ञान प्राप्त हो जानेसे जिन्होंने वस्तु स्वरूपको यथार्थ जान लिया हो, इतना ही नहीं, जो निर्भय या दृढ़ श्रद्धानी, दृढ़ विचारी हो चुके हों, उनका कर्तव्य है कि वे [ नित्यमपि सम्यकचारित्रमालाच्यम् ] अनिवार्यरूपसे हमेशा सम्यकचारित्रको धारण करें अर्थात् प्राप्त करें, क्योंकि मोक्षमार्ग में उसकी महती आवश्यकता है ॥३७॥
भावार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, ये तीनों आत्माके गुण (स्वभाव) हैं परन्तु इनका विकास ( प्रादुर्भाव ) या पूर्णता क्रम २ से होती है। क्षायोपामि अस्पा सभ्य दर्शन और सम्यग्ज्ञान ( आंशिक ) साथ २ होते है। अर्थात् जिस समय दर्शनमोहनामक मिथ्यात्त्वकर्मको उपशमादिरूप पर्याय ( अवस्था) होती है ( उपशमरूप-क्षयोपशमरूप-क्षयरूप, इनमेंसे कोई एक रूप ) उस समय ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम तो स्वभावतः रहता ही है, लेकिन उस क्षायोपशमिक ज्ञानका आंशिक कार्य यथार्थ होने लगता है। अतएव वह सम्यग्ज्ञान कहलाने लगता है।
__ इस तरह आंशिक ( अपूर्ण ) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान दोनों साथ ही होते हैं ( साथ २ सम्यक् विशेषण लगता है परन्तु क्रियात्मक चारित्र, जिसको बाहिर त्याग करना या संयमादि धारण करना कहते हैं, उनके साथ ही नहीं होता। यह चारित्र, निश्चयनयसे अन्तरंग परिग्रहके त्यागरूप है तथा व्यवहारनयसे बाह्य परिग्रहके त्यागरूप है । तब उसके लिए प्रयत्न या पुरुषार्थ करनेकी खास आवश्यकता रहती है, क्योंकि उसके बिना मोक्ष नहीं होता यह नियम है, यही बात इस श्लोक में दरशाई गयी है। सारांश यह कि सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति हो जानेसे चारिश्ररूपी बीज होने की भूमिका तयार हो पाती है, जिस बीजका फल मोक्षरूप कल्पवृक्षका उत्पन्न हो जाना है । फलत: बिना सम्यग्दर्शन द ज्ञानके सम्पकचारित्र उत्पन्न हो ही नहीं सकता यह नियम है। चारित्रका लक्षण और भेद आगे श्लोक में० ३९ में बताये जावेंगे। यहां सिर्फ भूमिका या पात्रता ही बतलाई जा रही है, इसीका नाम भूमिका शुद्धि है, उसीको अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि विना संयम या चारित्रके जोचन सब निष्फल है। असंयमी जीबन संसारका स्थान है, यह बात निश्चित है किन्तु संयमो जीवन भी क्रमानुसार होना चाहिये, व्यतिक्रममें उसका होना निरर्थक है, उसका संसार निवास ही रहता है। यद्यपि स्वरूपाचरणस्प निश्चयचारित्र, तथा मिथ्यात्वके त्यागरूप व्यवहार चारित्र, दोनों ही सम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानवालके आंशिक रूप हो जाते हैं तथापि अतरंगमें ये प्रकट होते हैं और वे भावरूप होते हैं, किन्तु द्रव्यरूम नहीं होते---शारीरिक