________________
wwEALonalisa
RINSISTANTARNAKTISTIARRHO
१४
पुरुषार्थसिद्ध गाय क्रियादिरूप दृष्टिगोचर नहीं होते अतएव लोकाचारमें उसको असंयमी अचारित्री ही कहते हैं ऐसा लौकिक न्याय है। फलत: लोकमें ( व्यवहारमें। उसीकी मान्यता होती है। परन्तु स्थिरतारूप निश्चयचारित्रके बिना मुक्ति या आत्मकल्याण नहीं हो सकता यह निश्चित है, बाहिरका या चरणानुयोगका चारित्र, मोक्ष महीं पहुँचा सकता। अतएव उसका नाम उपचार चारित्र रखा गया है किम्बहुना ॥३॥
आचार्यमे मोक्षमागोपयोगी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान होनेका कम ती बतलाया किन्तु 'सम्यकचारित्र' होनेका क्रम नहीं बतलाया, उसको बतला रहे हैंक्योंकि वह भी मोक्षमागमें महान् उपयोगी है और अन्तमें प्राप्त होता है ।
न हि सम्यग्व्यपदेशं चरित्रमज्ञानपूर्वकं लभते । ज्ञानानन्तरमुक्तं चारित्राराधनं तस्मात् ।। ३८ ॥
पद्य
R RORISSAMRAPANESHIAMONGuruRANDU
मोक्षमार्गका साधक चारित-सम्यकरूप कहाता है। सम्यकरूप होता है तब ही जब अज्ञाम हयाता है। इसीनिये पीछे वह होता पेर दश-ज्ञान होते।
लक्ष्यसिद्धिका अन्तिम साधन बुधजन प्राप्त अवश करते ॥ ३८ ॥ अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ अशानपूर्वक चारित्र, सम्यग्व्यय देशं न हि लभते ] अज्ञान अवस्थामें (मिथ्यात्त्वके अस्तित्त्वमें) धारण किया गया चारित्र (संयमादि) सम्यक् चारिश ( भोक्षमार्गोपयोगी यथार्थ चारित्र ) नहीं कहलाता, अत: बह मोक्षका साधक नहीं होता या हो सकता [ तस्मात् ज्ञामानन्तरं चारित्राराधनं उनम् ] इसी दृष्टि ( अपेक्षा ) से जो चारित्र, सम्यग्ज्ञानके अनन्तर होता है वह सम्यक चारित्र कहलाता है और वही मोक्षका साधक ( मार्म ) होता है, अतएव उसकी साधना या प्राप्ति सम्यकदर्शन सम्यग्ज्ञान प्राप्त हो जाने के पश्चात् बुद्धिमानोंको अवश्य करना चाहिये तभी लाभ होगा अन्यथा नहीं, यह क्रम है-जिनाज्ञा है ।। ३८ ॥
भावार्थ--मुमुक्षके लिये यों तो सामान्यत: सम्यग्दर्शनादि तोनों ही प्राप्त करने योग्य हैं, किन्तु उनका विकास ( प्रादुर्भाव ) जिस क्रमसे होता है उसी क्रमसे करना चाहिये सभी लाभ हो सकता है । इसके विपरीत जो जोष सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के पहले ही ( मिथ्यादर्शन व मिथ्याज्ञानकी अवस्थामें ही ) कषायवश या तीने रागादिके वशीभूत होकर ( लोकेषणावश ) बाह्मचारित्र ( शरीराश्चित क्रियाकाण्डरूप प्रतिज्ञा ) धारण कर लेते हैं किन्तु चारित्रके असली स्वरूप ( मम ) को नहीं जानते और न यह भी जानते हैं कि चारित्र किसका धर्म हैं ? आत्माका धर्म है कि शरीर.
१. अधिक कषायोंका उदय होनेसे ।