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सम्यक चारित्र अन्धय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [ हिंसातोऽनृतवचनात् स्तेयादभन्यतः परिग्रहप्तः, कासन्यकदेशविरतश्चारित्रं द्विविध जायते ] हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन प्रसिद्ध पाँच पापोंका त्याग करना चारित्र या व्रत कहलाता है, किन्तु उनका थोड़ा अर्थात् परिमाण-सीमा-मर्यादा सहित त्याग करना 'एकदेशव्रत' या चारित्र या अणुवत कहलाता है और उनका सम्पूर्ण त्याग करना 'सर्वदेशवत' या सकल चारित्र या महावत कहलाता है। इस प्रकार व्रत या चारित्रके दो भेद हो जाते हैं ! तथा उनके पालक भी श्रावक और मुनि ( यति ) के भेदसे दो प्रकारके होते हैं। इसीका खुलासा आगेके इलोकमें है ।।४।।
भावार्थ.....मोक्षका साक्षात् मागं ( उपाय ) चारित्र व्रत या धर्म ही है-दूसरा कोई नहीं है और वह अन्तमें ही पूरा होता है इसलिए पीछे कहा गया है, अस्तु। उसके पात्रकी योग्यताके अनुसार दो भेद किये गये हैं । अर्थात् पात्र कम शक्तिवाले और अधिक शक्तिवाले दो तरह के होते हैं । अतएव कम शक्तिवाले 'एकदेश' चारित्र हो धारण कर पाते हैं और अधिक शक्तिवाले 'सकलदेश' चारित्र धारण कर लेते हैं और वे ही मोक्षको जाते व जा सकते हैं, यह नियम है। ऐसी स्थिति में सर्वोत्कृष्ट उपादेय सकलचारित्र या महाव्रत ही है। यद्यपि उसके भी क्रमशः छेदोपस्थापन, परिहारविशद्धि, समसाम्पराय, यथारख्यात ऐसे पांच भेद होते हैं, जिनका उद्धव एक साथ नहीं होता-क्रमशः होता है। जब परमदरजेका चारित्र 'परम यथाख्यात' प्राप्त हो जाता है तभी मुक्ति होती है, फलतः तद्भव मोक्षगामीके लिये वही प्राप्तव्य है। आजकल यहाँ पर वह अलभ्य है अत: मोक्ष जाना भी बन्द है।
अनादिकालसे जीव परद्रव्यके संयोगसे अशुद्ध हो रहे हैं अर्थात् संयोगोपर्यायमें रह रहे हैं और हिंसादि रूप तरह २ के भाव व क्रिया करने रूप उद्यम ( पुरुषार्थ ) हो रहे हैं, जिनसे नवीन कर्मोंका बंध होते हुए उदयमें आकर सुखदुःखादि दे रहे हैं, और भूलवश उनसे छुटकारा नहीं पाते, यह श्रृंखला बराबर चालू है, बस यही पापबंध या पुण्यबंधका कारण है। उसीके हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह या क्रोध मानादिक सब भेद हैं, कोई पृथक चीज नहीं है। अतएव जबतक उनसे पूर्ण सम्बन्ध विच्छेद नहीं हो जाता तबतक संसार नहीं छूटता, न असली सुख मिलता है। अतः वह अशुद्धता दूर होना ही चाहिये । वह अशुद्धता 'सम्यग्दर्शन' सम्यगज्ञान, सम्यक्चारित्रकी एकतासे दूर हो सकती है यह बार २ पीछे बतलाया गया है, उसमें दो मत नहीं हैं, न हो सकते हैं, यह अवश्य ध्यान रखना चाहिये। सुख-शान्तिकी प्राप्तिके लिये लिये निर्विकल्प या तिराकुल होना अनिवार्य है किन्तु जबतक बिकारी भावों ( समादि ) का तुफान अन्तरंगमें मौजूद रहता है तबतक वह असंभव है, किसी भी तरह उत्पन्न नहीं हो सकता। अच्छे निमित्तोंका मिलाना एक उपाय है ( व्यवहाररूप है ), किन्तु वह अविनाभाव नहीं रखता। हाँ, अन्तरंगमें ज्ञायक स्वभावका आलम्बन लेना एक मुख्य साधन है, उसके संस्कारसे बहुत कुछ काम बन सकता है लेकिन उपादानको नहीं भुलाया जा सकता।
सम्यग्दर्शनके कालमें होने वाली निर्विकल्प दशामें ही स्वानुभव होता है ( सच्चा स्वाद
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