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तीसरा अध्याय
| आचार्य महाराजने इस धार्मिक ग्रन्थ में जिस विचित्रता के साथ ( मूलमें भूल बतलाते हुए ) असली धर्म और उसकी प्राप्तिका उपाय बतलाया है वह विश्वसनीय ही नहीं अपितु यथाशक्ति करणीय भी है । इसीलिये उन्होंने सबसे पीछे 'रत्नश्रयधर्म' का पृथक् २ स्वरूप बतलाया है और उसको हो या मोक्षका उपाय ( मार्ग ) बतलाया है । मूल लक्षण, उसके भेद, निमित्त व उपादान कारण, अंग, आदि सभी तो पीछे बतला दिया है । अब सिर्फ यह बतलाना शेष है कि उस यथार्थ धर्मको पालने या धारण करनेके अधिकारी ( पात्र ) कोन २ हैं ? इसके उत्तरमें कहना होगा कि दो अधिकारी' हैं । अर्थात् ( १ ) अधिकारी श्रावक ( अणुव्रती ) है और ( २ ) अधिकारी मुनि ( महाव्रती ) हैं । उन दोनोंमें से पहिले 'श्रावक धर्म अधिकार, के रूपमें ५ पांच अणुव्रतोंका वर्णन किया जाता है। कारण कि श्रावक अथवा अणुव्रत १२ बारह भेद हैं । ( ५ अणुव्रत ३ गुणत शिक्षाव्रत ) | अतः क्रमानुसार पहिले अणुव्रतों का ही वर्णन होना चाहिये इत्यादि । तदनुसार कथन, आगे है। धर्मका प्रवासी माथा नं० ७ में'वारितं खलु धम्मो' इत्यादि कहा गया है अस्तु । व्रतका नाम भी चारित्र है । ]
श्रावधर्म अधिकार अर्थात् पंचाणुव्रतका स्वरूप ( वैशचारित्र )
हिंसातोऽनृतवचनात्स्तेयाद्ब्रह्मतः परिग्रहः । कायैकदेशविरतेश्चारित्रं जायते द्विविधम् ||४०||
पथ
हिंसा झूठ श्रौर्य अरु परिग्रह परनारी सेवन है पाप । इनका सीमित स्थाग करेले एकदेशयत होता माप || पूरण सबका त्याग करे से सकलदेशव्रत पलड़ा आप यहां मार्ग है सुखका कारण यथाशक्ति होभी विध्याय ॥ ४० ॥
१. १ हिंसा ( जीवात ) २ झूठ ( असत्य बोलना ३ चोरी (पर ग्रहण ) सेवन ) ५ परिग्रह (अधिक संग्रह करना व आसक्ति रखना) ये पाँच पाप है। करना देशव्रत या अणुक्त कहलाता है और सम्पूर्ण त्याग करना सकलवत या ऐसे दो भेद चारित्रके हैं।
२. परिमाण ।
Palmisar
४ शील ( परनारी
इनका थोड़ा २ त्याग महाव्रत कहलाता है,