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पुरुषार्थसिद्धधुपाय वह सम्यग्दष्टि चतुर्थ गुणस्थान वालेके भी आंशिक होता है क्योंकि सम्यग्दर्शन प्रारंभमें शुद्ध निश्चय रूप ही होता है, यह नियम है अर्थात् उसमें विकल्प या रागद्वेष रूप विकारभाव कुछ समय तक नहीं होते, उपयाग स्थिर रहता है। पश्चात् विकल्प उठते हैं, जो व्यबहार रूप हैं । इस विषयमें मतभेद रखना व्यर्थ है, असंभव नहीं है, सब संभव है। पंचाध्यायीकारने भी इलोक नं. ६.८ में स्पष्ट लिखा है ....
मोहे स्तंगते पुंसः शुदस्यानुभवो भवेत् ।
म भवेद् विघ्नकरः कश्मिचारित्रावरणोदयः ॥ ६.८ ॥ उत्तरार्ध अर्थ-दर्शनमोह ( मिथ्यात्त्व ) कर्मके अभाव हो जाने पर शुद्धात्माका अनुभव । शुद्धोपयोग ! अवश्य होता है--उसके होने में कोई दूसरा-चारित्रमोहनीकर्मका उदय बाधक नहीं हो सकता यह तात्पर्य है ॥ ६८ ॥
अनंतानुबंधो कषाय चारित्रमोहनीका भेद होनेसे वह मुख्यतया 'स्वरूपाचरण चारित्र' को ही बातती है और उसके अभावमें चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्रका होना अनिवार्य है फिर हठ या इन्कार काहेका ? विवेकीको अवश्य मान लेना चाहिये।
___ उत्सर्ग च अपवाद भेद चारित्रके, द्रव्य चारित्र ( शरीर या योग-मन वचन काय, को क्रिया रूप) और भाव चारित्र ( आत्माके परिणाम रूप ) दो भेद होते हैं। उनमेंसे द्रव्यचारित्रके ( १) उत्सर्म चारित्र ( त्याग हा कठिन या कठोर आचरण करना ) और ( २ ) अपवाद चारित्र ( मुलायम या शिथिल आचरण करना ) इन्हींके दूसरे नाम (१) उपेक्षणीय चारित्र या उपेक्षा संयम तथा (२) अपेक्षणीय चारित्र या अपहृत संयम, ऐसे दो नाम होते हैं इत्यादि । किन्तु इनमें अनेकान्तदृष्टि { स्वाद्वाद या नाथंचित् दृष्टि ) अवश्य रखना चाहिये-एकान्त (एक पक्षको ) दृष्टि नहीं रखना चाहिये, यह साधु या संयमीका मुख्य कर्तव्य है ! जैन शासन में अनेकान्त दृष्टिका रखना मुल मंत्र है। उसके विना सब व्यर्थ है। संयोगी पर्याय में पूर्ण शुद्धोपयोग होनेके पेश्वर अनेकान्त दष्टिका होना अनिवार्य है, ऐसा आचार्योंका मन्तव्य है अस्तु । बगबहारनयसे जिस चरणानुयोग के चारिश्रका लोकमें महत्त्व है व आदर है, उसको धारण-पालन करते समय साधुके अनेकान्त दृष्टि होनी चाहिये । जैसे कि उत्सर्ग { कठिन त्याग रूप) संयमको उत्कृष्ट समझकर धारण करने बाला साथ अपने मन में यही धारणा रखे कि यह 'उत्सर्ग संयम' मेरे लिये कचित् उपादेय व हितकारी है, सर्वथा नहीं है अर्थात् जबतक इस कठोर संयमको पालत हा मेरे भावों में विकार या चंचलता सक्लेशता आदि न हो { ज्योंके त्यो स्थिर रहे ) तबतक हो उपादेय व हितकारी है। और परिणाम बिगड़ जाने पर उपादेय ब हितकारी नहीं है। अतएव उत्सर्ग सुयम पालने में हठ या जब दस्ती नहीं करना चाहिये किन्तु अपवाद संयम ( ग्रहण रूप की अपेक्षा । आवश्यकता पड़ने पर उसका सहाग लेना ) भी रखना, स्याद्वादीका कर्तव्य है। ऐसा करनेसे उसका संयम ( उत्सर्ग संयम ) उस जीवन में अधिक समय तक पलता रह सकता है बाधा नहीं आ सकती।
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