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पुरुषार्थसिमुपाय
सभ्यचारित्र अधिकार आचार्य सम्यक्चारित्रका स्वरूप बतलाते हैं।
चोरित्रं भवति यतः समस्तसावधयोगपरिहरणात् | सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ।।३।।
पद्य मोह कर्मसे रहिल योग जब पाप गहिस हो जाते है। अरु कषायके मष्ट हुए से निर्मलता पा जाते हैं। स्थिरता था जाती है य-माम उसीका है 'चारित' । वह है आत्मरूपका दर्शन, उदासीनता अवमारिस ॥३९॥
अथवा
सककषाय योग छूटे, चारित गुण प्रकटित होता । वह विशद बिरामरूपमय, भामस्वरूप कहा जाता ।। मिश्यचारित उसे कहत हैं. स्वाश्रित जो प्रकरित होता ।
पटने निषा होला है जो, वह व्यवहार कहा जाता ॥३९॥ अन्यय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि-[ यत् सकलपायविमुक्त विशद उदासीनं आमरूपं. सन् धारित्रं भवति ] जो सम्पूर्ण कषायोंसे रहित हो, निर्मल हो ( घातिया कर्मोसे रहित हो }, उदासीन हो, अर्थात् बीतरागतारूप हो ( राग द्वेषादिविकारों-विकल्पोंसे रहित हो) और आत्माका गुण हो { स्वाधित हो ) उसको चारित्र कहते हैं। [यतः समस्तसावध योगपरिहरणात् ] इसका हेतु (निमित्त ) तीनों योगोंका पापक्रियाओंसे मुक्त होना या छटना है अर्थात् पाप कर्मके आस्रव व बन्धसे रहित हो जाता है और वह मोह कर्मके नष्ट हो जानेसे होता है यह सार है ।।३।।
इस श्लोकसे चारित्रके भेद भी प्रकट होते हैं जिसका खुलासा किया जायगा अस्तु ।
भावार्थ-चारित्र आत्माका गुण है शरीरका नहीं है यह मुख्य बात है। उसके दो भेद होते हैं (१) निश्चयचारित्र ( स्वाधित (२) व्यवहारचारित्र ( पराश्रित) व्यवहारनयकी अपेक्षासे वह चारित्र, कषायोंके अभाव होनेपर होता है ( जो पर है ) या कषाय रहित योगोंके होनेपर
१. आवरण या वृत्ति। २. पापाम्रा या पापबन्धरहित योगत्रयकी क्रिया---परिस्पन्दरूप । ३, अभाम हो जानेसे। ४. पाप कर्म या पाप प्रकृतियाँ, घालिया कर्म माने गये हैं यह विशेषता है। ५. प्रादुर्भाव या प्रकट होना ।