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প্যাদি का धर्म है इत्यादि । बहतसे प्राणी अज्ञानताके कारण, शरीरसे अनेक तरहकी क्रियाएं करते हैं । जेसे कि तरह २ की आसने लगाना, व्यायाम करना, भोजनपान बन्द कर देना, एक ही प्रकारका भोजन करना, गांजा-भाँग आदि नसैली चीजोंका उपयोग करना, घद्वातद्वा जहां-तहाँ खाना-पीना, दिन रात्रिका भक्ष्य-अभक्ष्यका भेद नहीं करना, बाउला जैसा बर्ताव करमा, शरीरमें धुलि गख लपेटना, टाटफट्टा-बल्कल या पीताम्बर रनार आदि पहिरना नग्न रहला. भारत के नए (स्वांग) बहुरूपिया सरीखे बनाना, जटाजूट रस्त्रना, केश नाखून आदि बढ़ा लेना आदिकोही चाथि मानकर वैसा कार्य किया करते हैं। इन्हीं सब कामोको मुक्तिका कारण ( साधन ) समझकर दिन रात लगे रहते हैं। कोई २ अन्न छोड़कर फल आदि खानेको ही चारित्र समझते हैं। तात्पर्य यह कि आडम्बरको ही चारित्र मानकर ठगते रहते हैं, वे तोवकषायी संसारसे पार नहीं होते। बहुतसे जीव ऐसे मन्दकषायी भी होते हैं कि घरद्वार, राज्य सम्पदा आदि छोड़कर एकान्त बियावान जंगलोंमें व गुफाओंमें, गुप्त स्थानोंमें अनेक सरहके कष्ट सहते हुए जीवन व्यतीत करते हैं, परन्तु किसीसे याचना नहीं करते, न शारीरिक आराम चाहते हैं, लेकिन चारित्रका यथार्थ स्वरूप नहीं समझते । नतीजा यह होता है कि अत्यन्त मन्द कषाय होनेसे जैन-लिंगी हो तो नववेयिक तक्रके वेव हो जाते हैं, ३१ सागर सककी लम्बी आयु पा लेते हैं किन्तु मोक्ष नहीं जा सकते, संसारमें ही डालते रहते है। कारणकि बह सब आत्म-अनात्मक ज्ञान विना मिथ्या चारित्र हैं, सम्यक्चारित्र नहीं है । मोक्षको प्राप्ति होना सम्यकचारित्रका फल है। सम्यक्चारित्र, सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान प्राप्त हुए बिना कदापि नहीं हो सकता। अतएव पेश्तर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करना चाहिये, तब वह सम्यक्चारित्र प्राप्त होकर मोक्षको ले जायमा, अन्यथा नहीं ! वह चारित्र आत्माका धर्म है, शरीरका धर्म नहीं है, तथा कषायोंके अभावरूप है ----मन्दरूप है, तीवरूप नहीं है, निर्विकार व अहिंसक परिणामरूप है, सविकार व हिंसक परिणामरूप नहीं है, ऐसा समझना चाहिये, अस्तु ।
रोग और रोगको उपयुक्त औषधिका ज्ञान न होनेपर जैसे कोई उल्टी दवाई या औषधि खाकर अच्छा नहीं हो सकता. प्रत्यत सत्य हो सकती है। उसी तरह चारित्रका ज्ञान हए बिना अचारित्रको चारित्र मानकर धारण कर लेनेसे संसार सागरसे पार नहीं हो सकता । कहा भी है कि 'बिन जाने ते दोष गुणनको कैसे सजिये गहिये । अनादिकालसे यही तो होता चला आया है कि विना सम्यग्ज्ञानके चौरासी लाख योनियों में जीव ( आत्मा) को अनन्ती वारं घूमना पड़ रहा है इत्यादि, अतएव अज्ञान या भूलको मिटाना अति आवश्यक है। क्रियाकाण्ड और शरीरके वेष, शुद्धोपयोगरूप सम्यक्चारित्रके साधन ( निमित्त ) कदापि नहीं हो सकते ऐसा समझना चाहिये।
फलतः मिश्यादष्टि उच्चपद ( देवपर्याय } पाकर भी आत्माकी रक्षा नहीं कर सकता अर्थात स्वभावका घात होना चन्द नहीं कर सकता, कारण कि उसके मिथ्यात्वत्र अमन्तानुबन्धीका बन्ध निरन्तर होता रहता है । अतएव उसका दर्जा उस मनुष्य या तिर्यञ्चसे भी नीचा है, जिसके सम्यग्दर्शन हो जाता है | आत्मरक्षा करने लगता है । मिथ्यात्वका बन्ध नहीं करता ) 11३।। १. अल्प या थोड़ी कषायोंका उदय होनेसे ।
...NA WAŁU
MAHARASHTRA