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पुरुषार्थसिचुपाय
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प्रश्न होता है कि सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान जब एक ही साथ । युगपत् ) होते हैं तब दोनों पृथक् २ कहनेकी क्या आवश्यकता है? आचार्य महाराज युक्ति सहित इसका उत्तर देते हैंपृथगाराधनमिष्टं दर्शनसह भाविनोऽपि बोधस्य | लक्षणभेदेन यतो नानावं संभवत्यनयोः ॥ ३२ ॥
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सहभावी होते भी कोई एक रूप नहीं होते हैं । रूप रसादिक पुगल के क्या एक कभी भी होते हैं ? छड़े के दो सींग साथ ही होकर जुदे जुड़े रहते । क्षणभेद जुदा करता है- armi Se धरते ||३२||
अन्वय अर्थ -- आचार्य कहते हैं कि [ दर्शनाविनोऽपि श्रोधस् ] यद्यपि दर्शन या सम्यम्दर्शनके साथ २ ( युगपत् ) ज्ञान या सम्यग्ज्ञान होता है, काल भेद नहीं है तथापि दोनोंको [ पृथगाराधनमिष्टं ] पृथक २ ( भित्र सतावाला ) कहा गया है और उनको पृथक् २ प्राप्त करना भी बतलाया गया है । यमः लक्षणभेदेन अमयोः नानावं संभवति ] कारण कि दोनों का लक्षण पृथक २ होनेसे दोनोंमें मेद पाया जाता है. दोनों एक नहीं हो सकते। ऐसा न्याय है ||३२||
भावार्थ- सब पदार्थो का परस्पर संयोग रहने पर भी सभी पदार्थ, परस्पर अपना २ लक्षण जुदा २ होने से पृथक् २ माने जाते हैं, वे कभी एक ( समवायरूप या तादात्मरूप ) नहीं होते
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नियम है। इसी तरह एक साथ उत्पन्न होने पर भी सभी एक नहीं हो जाते, जैसे कि पुद्गल द्रव्यमें रूपरसादिक एक साथ उत्पन्न होते हैं तो भी लक्षण उनका जुदा २ होनेसे वे जुदे ही माने जाते हैं । अथवा गायके बछड़े के दोनों सींग साथ २ प्रकट होते हैं किन्तु दोनों अपनी सत्ता जुदी २ रखते हैं । तब सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ र प्रकट होने से वे कैसे एक हो सकते हैं ? कदापि नहीं हो सकते, क्योंकि उनका लक्षण जुदा २ पाया जाता है। सम्यग्दर्शनका लक्षण 'तत्त्वोंका सम्यकश्रद्धान करना है' और सम्यग्ज्ञानका लक्षण 'तत्वोंका यथार्थ जानना' है । इत्यादि क्षणभेद दोनोंका है तथा दोनों आत्माके गुण हैं व जुदे २ हैं । फलतः दोनोंको जुदा २ मानना अनिवार्य है । इसके बाबत बड़े २ प्राचीन ग्रन्थोंमें अच्छा प्रकाश डाला गया है सो देख लेना forget a retriमें 'कार्यकारण भाव' और दीप और उसके प्रकाशका दृष्टान्त देकर खुलासा किया गया है इति ।
नोट- कोई-कोई एकान्ती, दर्शन-ज्ञानका एक काल होनेसे दोनोंको जुदा २ नहीं मानते, एक मानते हैं, अतएव असलमें उनका खण्डन करनेके लिए यह श्लोक लिखा गया है ऐसा समझना चाहिये ।
१. दर्शन व ज्ञान दोनों
२. सर्वे पदार्थाः भिन्नाः लक्षणभेदात । यत्र २ लक्षणभेदः तव पार्थभेदः इति ।