________________
सैन्यज्ञान
AON
जैनमत ( दर्शन ) के अनुसार कालद्रव्यको समय पर्याय बहुत सूक्ष्म है, उससे सूक्ष्म और दूसरी पर्याय नहीं है अतएव उसका पृथक् २ शान होना क्षयोपशम ज्ञानियोंको असम्भव है वह बड़ा जल्दी बदल जाता है जैसे कि कौआके आँखोंकी गोलक जुदी २ है किन्तु पुतली एक है और वह इतनी जल्दी घूमती बदलतो है कि मानों एक ही समयमै वह बदल गई ऐसा भान ( प्रतीत ) होता है किन्तु उसमें समय भिम्न लग जाता है। हाँ, स्थूलदुष्टिसे एक ही समयमें बदलना मालूम पड़ता है। अपना कामलके सौ पत्रोंके छेदने जैसी बात है, वे भी एक समयमें नहीं द्रिदते, अनेक समय लग जाते हैं। इसी तरह दर्शन व ज्ञानका समय कथंचित् जुदा २ हो सकता है सर्वथा नहीं है, अत: भ्रममें नहीं पड़ना चाहिए किन्तु सत्य निर्धार करना चाहिये ।
इसके सिवाय एक साथ उत्पन्न होना तथा एक साथ कार्य करना ये दो बातें अदी २ हैं। कार्य करनेका समय भिन्न २ हो सकता है यत: क्रमशः उनमें अर्थक्रिया होती है ऐसा उनका स्वभाव है तथा विषयभेद भी पाया जाता है इति ।
नोट-कहने में जुदा २ आता है, अतएव व्यवहारमयसे जुदा २ कहना सम्भव है किन्तु निश्चयनयसे एक काल उत्पन्न होते हैं, अतएव कालभेद दोनोंमें नहीं है परन्तु सत्ता दोनोंकी जुदी २ है, एक नहीं है ऐसा खुलासा समझना चाहिये ।।३।। आचार्य आगे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें कारणकार्यरूप बिशेष सम्बन्ध बताते हैं । ( वाली विशेषण बदलने रूप, इस्पाच-उत्पावकरूप नहीं
विवक्षाभेवसे पौर्वापर्यपना) सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः । ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात् ॥३३॥
सम्यग्दर्शनशान उभय में कारयकार्यपन! जानी । श्री जिनदेव कहत हैं ऐसा, तुम भी उसे सत्य मानो १ कारण सम्पनी कहा है-सम्बरमाम कार्य जानो। इससे पहिले 'दर्श साध्य है, पीछे ज्ञान साध्य मानो ॥३३॥
* १. सम्यग्दर्शन। २. सम्यग्दर्शन पूरा नाम : नामैकदेशे नाममात्रग्रहणमिति न्यायः । 'सम्यक्' यह विशेषण है, सो वह पहिले
दर्शनमें लगता है, पीछे शानमें लगता । अतएव विशोषण लगनेको अपेक्षासे सम्मक दर्शन कारणरूप है और सम्परज्ञान कार्यरूप है ऐसा खुलासा समझना चाहिये किन्तु उत्पत्तिकी अपेक्षा पहिले ज्ञान पीछे दर्शन समझना चाहिये ।