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पुरुषार्थसिव्युपाय { पदार्थो-वाच्यों ) का ज्ञान, एवं शब्द, अर्थ दोनोंका ज्ञान, होना अनिवार्य है। इसी तरह अकालसुकालका ज्ञान होना व सुकालके समय शास्त्र' पढ़ना, विनय सहित पढ़ना, धारणा ( स्मृति } सहित पढ़ना, उच्वासन देकर पढ़ना और गुरू आदिका नाम जाहिर करके पढ़ना, ये सब शिष्यके कर्तव्य हैं। तभी उस शिष्यको विशेष ज्ञान उत्पन्न होता है...उसकी प्रतिभा अतिशयबाली होती है, ऐसा समझना चाहिये ।। ३६ ।।
सम्यग्ज्ञानके आठ अंग और उनका खुलासा (१) शब्दोंका ज्ञान होना (२) पदार्थोंका ज्ञान होना (३ ) शब्द और अर्थ दोनोंका मान होना ( ४ ) सुकालमें अध्ययन करना (५) विनयके साथ अध्ययन करना ( ६ ) धारणा सहित अध्ययन करना (७) उच्च स्थान देकर अध्ययन करना (८ ) गुरु आदिका नाम नहीं छिपाना, ये आठ सम्यग्ज्ञानके अंग हैं।
लोट.....इनमें मुख्यता हृदय साफ होनेकी है, कोई छलकपट या मिथ्यात्वादि रूप भाव नहीं रहना चाहिये, तभी वह सम्यग्ज्ञान गुण प्रकट हो सकता है अन्यथा नहीं।
अंगोंका ही दूसरा नाम आचार है यथा (१) शब्दाचार---शब्दशास्त्र ( व्याकरण ) के अनुसार अक्षर-पद-वाक्यका पठनपाठन यलपूर्वक शुद्ध करने को कहते हैं । इसीका नाम व्यंजनाचार, श्रुताचार, अक्षराचार, ग्रन्थाचार आदि सब एकार्थवाचो हैं।
(२) अर्थाचार---यथार्थ शुद्ध अर्थके अवधारण करनेको कहते हैं।
(३) उभयाचार-~-शब्द और अर्थ दोनोंके शुद्ध पठनपाठन करनेको कहते हैं । - ( ४ ) कालाचार-शुभ घड़ो शुभ मुहूर्तमें स्वाध्याय अध्ययन { पठनपाठन ! करनेको कहते हैं। प्रदोषकाल, उपसर्गकाल, दुर्दिन, उल्कापात, वचपात, ग्रहण आदिके समय पठनपाठन आदि वर्जनीय है अर्थात् सूत्रोंका--सिद्धान्तशास्त्रोंका पठनपाठन निषिद्ध है, नहीं करना चाहिये । सूत्र ४ प्रकारके होते हे (१) गणधरसूत्र (२) प्रत्येकबुद्धचित सूत्र, (३) श्रुतकेयलीरचित सूत्र (४) अभिन्नदशपूर्वधारी रचित सूत्र । ऐसा समझना चाहिये ।
(५) विनयाचार----शुद्ध जलसे हस्तपाद आदि धोकर शुद्ध स्थानमें नमस्कार आदि विनय करके पठन करनेको कहते हैं।
(६) उपधानाचार--स्मरण सहित अध्ययनादि करनेको कहते हैं। अथवा वेष्टन आदि बांधकर सुरक्षा करना भी उपधानाचार कहलाता है।
(७ । बहुमानाचार---ज्ञान, पुस्तक, गुरुका पूर्ण सन्मान ( सत्कार ) करके याने उनको उच्च स्थान देकर पड़ेनेको कहते हैं।