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बाला है ऐसा जैन शासनमें सर्वज्ञ केवलीने बतलाया है, और यह वात हर तरहसे अर्थात् प्रमाण-नय-निक्षेपोंसे बराबर सिद्ध की गई है। अतएव सम्यग्दृष्टि सम्यग्ज्ञानीको इसमें कोई भ्रम नहीं रहता, उसकी श्रद्धा व ज्ञान अटल रहता है । मिथ्यादृष्टि वस्तु ( पदार्थ ) में अनेक धर्म नहीं मानते एक ही कोई धर्म वस्तु मानते हैं, अतः वस्तु व्यवस्था नहीं बनती, सब कल्पनारूप या एक ईश्वरादिके आधीन सबको मानते हैं, तब वस्तुको स्वतन्त्रता नष्ट हो जाती है इत्यादि अनेक दोष ( आपत्तियाँ ) आते हैं । फलतः सरागी अल्पज्ञानियोंके द्वारा कहा गया 'तस्व' सब free व अधूरा है किम्बहुना' ।
सम्पज्ञान
सम्यज्ञानकी आराधना या साधना कैसे करना चाहिये अर्थात् उसका क्या उपाय है ? यह आचार्य बताते हैं । ( व्यवहारनयापेक्षा } ग्रन्थार्थीभयपूर्ण काले विनयेन सोपधानं च । बहुमानेन समन्वितमनि ज्ञानभाराध्यम् || ३६ ॥
पद्य
ज्ञानसाधना भार विधि होती हैं यह सार । शब्द अर्थ re aaa का ज्ञान कहा अनिवार are fare अe धारणा, आदर गुरु का नाम । इन आठ अंगन सहित सिद्ध होत अभिराम ॥ ३६ ॥
अन्वय अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि [ काले ] योग्यकालमें अर्थात् अनध्याय- प्रदोष आदि कालोंको टालकर शेष सुकालके समयमें तथा [ विनयेन बहुमानेन समन्वितं ] विनय (नम्रता ) के साथ बहुमान या उच्च स्थान देकर [ प्रम्यार्थीमयपूर्ण अभिह्नवं शानमाराध्यम् ] शब्दका, अर्थं (वाचक वाय) का, और शब्द, अर्थ दोनों का, ज्ञानपूर्वक गुरू आदिका नाम सहित 'सम्यग्ज्ञना' को प्राप्त करना चाहिये । अर्थात् उक्त आठ जंग या निमित्ति मिलाकर सम्यग्ज्ञानकी आराधना उपासना या सेवा करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करनेसे ज्ञानको प्राप्ति विशेष रूप में होती है ये बाह्य साधन हैं || ३६ ||
भावार्थ-ज्ञानं या सम्यग्ज्ञान आत्माका गुण है, उसका प्रकाश या उत्पत्ति निश्चयसे अपनी ही सहायतासे होती है अर्थात् ज्ञायक स्वभाव आत्मा के ही आलम्बनसे होती है किन्तु व्यव" हारले शब्दादिक जो आठ बाह्य निमित्त है, उनके आलम्बनसे होती है। ऐसी स्थिति में सम्यक् ( यथार्थ ) ज्ञान होनेके लिये शब्दों का ज्ञान, ( पदों व वाक्योंका ज्ञान, वाचकोंका ज्ञान ), अर्थों
१. अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात्, निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ञानमागमिनः ||४२||
-रत्न० श्रावकाचार
२. अभी साध्य !
Pe..
निकल कर सुराम अग्रवास और दुभरत नजरपुर गरीमा मृध्दि म. स्वानंदन