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सम्यग्ज्ञान
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अतएव सम्यग्दर्शनरूप भाव, सम्यग्ज्ञानरूप भावके होने में निमित्तकारण अवश्य है, फलतः उक्त प्रकारका कारण कार्यपना मानना लाजमी है, अस्तु ।
भावार्थ---ज्ञानगुण आत्माका प्राण या स्वभाव है, सो जब वह सत्य या सही ( यथार्थ ) होता है तभी उसकी यथार्थताका समर्थन करनेके लिए पुष्टिरूप ( छाप-शीलरूप) 'इत्यंभूत प्रतीति होती है....अर्थात् जो ज्ञानने जाना है वह सत्य है अन्यथा नहीं है, यह पक्कापन ही सम्यकपना या विशेषण है जो पहिले प्रतीति या श्रद्धान या सम्बग्दर्शन में लगता है उसके पश्चात् उसी समय वह सम्यक् विशेषण ज्ञानमें भी लगता है। ऐसी स्थितिमें श्राद्वान मुख्य माना जाता है, जो कारणरूप है और ज्ञान गौणरूप माना जाता है, जो कार्यरूप है, यह खुलासा समाधान है। फलत: उत्पत्तिको अपेक्षासे ज्ञानका दर्जा पहिला है और श्रद्धानका दर्जा दुसरा है, किन्तु विशेषणकी अपेक्षासे दर्शनका दर्जा पहिला है और ज्ञानका दर्जा दूसरा है किम्बहुना ॥३३॥ आचार्य पूर्वोक्त विषयको वोण और प्रकाशका उदाहरण देकर और स्पष्ट करते हैं
(विशेषण विशेष्यको अपेक्षा ) कारणकार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हि । दीपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् ॥३४॥
पा युगपत् उत्पसी होते मी, कारण कार्यपना बनता । दीपशिखा अरु प्रकाशको ज्यों, नहिं विवाद उनमें टनता ।। सश्य समझकर बात हमेशा करना ही चतुराई है।
विना समझके विवाद करते, होती जग कुबड़ाई है ॥३४॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ हि सम्यक्त्वज्ञानयोः समकालं जायमानयोरपि दीपप्रकाशयोरिव कारणकार्यविधानं सुघरम् ] निश्चयनयसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में, एक हो समयमें प्रकट होनेवाले दीपक (दाह) और प्रकाश ( उजेला) की तरह कारणकार्यपना निर्विवाद सिद्ध हो जाता है अर्थात् जैसे दीपकको कारण और प्रकाशको कार्य मान लिया जाता है, उसी तरह सम्यग्दर्शनको कारण और सम्यग्ज्ञानको कार्य माननेमें कोई विरोध नहीं आता, अस्तु 11३४।।
भावार्थ-- युक्ति, आगम, स्वानुभवसे जो सिद्ध होता है उसमें कोई विवाद नहीं रहता, वहाँ हठ करना व्यर्थ है। तदनुसार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ये दोनों एक साथ होते हैं परन्तु कार्य भिन्न-भिन्न होनेसे वे दोनों एक नहीं हो जाते, फिर भी परस्पर कार्यकारण सम्बन्ध रहता है, वह नहीं मिटता ! कारणकार्य सम्बन्ध अनेक तरहके होते हैं, जैसे निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध, उपादानउपादेय सम्बन्ध जन्य जनक सम्बन्ध, विशेष्यविशेषण सम्बन्ध, परस्परसंयोग सम्बन्ध, व्याप्यव्यापक सम्बन्ध इत्यादि । इनमें भूलना नहीं चाहिये, अन्यथा गड़बड़ी हो सकती है ऐसा निर्धार करना चाहिये किम्बहना। .... १८