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सम्यग्ज्ञान
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ज्ञानके ही सम्यक त्याम हो सकता है जो मोक्षके लिये उपयोगी है । मिथ्याज्ञानीके लिये वह असंभव है, उसका त्याग, संसारमार्गी है वह अधिक से अधिक पुण्यबंध कर सकता है किन्तु संसार छेद नहीं कर सकता ऐसा समझना चाहिये अस्तु । सम्यग्दृष्टिके तत्काल त्यागका भ्रम निकालना afrat है । किम्बहुना भावकी अपेक्षासे वह सबसे बड़ा त्यागी है, जिसने संसारकी जड़ fromrani त्याग कर दिया है किन्तु बाहिर चरणानुयोगको अपेक्षासे अत्यागी व असंयमी हो रहता है अस्तु ।
त्यागी व परिग्रहीका निर्धार
लोकव्यवहार में जो बाह्य परिग्रहका त्याग कर देता है वह त्यागी ती कहलाता है और निश्चयमें जो अन्तर्दृष्टि ( भेदज्ञानी ) होता है वह त्यागी कहलाता है। यह दृष्टिभेद पाया जाता है । परिग्रहका अर्थ 'ममत्व" होता है अर्थात् 'यत्र २ ममत्र तत्र २ परिग्रहस्वम् ऐसी व्याप्ति है । तदनुसार सम्यग्दृष्टिके रुचिपूर्वक परमें एकत्व ( हिस्सेदारी स्वामित्व ) न होने से वह परिग्रह रहित यथार्थत: है परन्तु संयोगी पर्याय में शरोरादि परका संयोग अवश्य रहता है अथवा परिग्रही माना जाता है। इसके विपरीत बाह्य परिग्रहका त्यागी होकर भी यदि सम्यग्दृष्टि ! अन्तर्दृष्टि ) नहीं है तो वह निश्वयसे परिग्रही है, जो परमें हिस्सेदारी अर्थात् स्वामित्त्व व राग करता है। भावलिंगी मुनिके यद्यपि शरीरमात्र परिग्रह देखने में आता है, तथापि area ( हिस्सेदारी स्वामित्व व राग ) न होनेसे वह निश्चयसे परिग्रही नहीं है । सबूत में वह शरीरका संस्कार आदि कुछ नहीं करता निर्मोही रहता है। इस तरह व्यवहारदृष्टि व निश्वयदृष्टि भिन्न २ प्रकारकी रहती है कभी एक नहीं होती और तत्व निर्णय भी भिन्न २ प्रकारका होता है, परन्तु तत्त्व या वस्तु नहीं बदलती चाहे उसका निरूपण या कथन कोई किसी प्रकार करे यह ध्यान रहे । अतएव 'सत्य हमेशा सत्य ही रहता है' ऐसा न्याय है। फलत: fresent निर्धार सही माना जाता है, उसमें हट करना मिथ्यात्व है। सम्यग्दृष्टिकी विचारधारा सत्य रहती है. आचरण विवशतामें अन्यथा व असत्य भी हो सकता है, जिसे वह अपनो कमजोरी या गलती समझता है ऐसा समझना चाहिये | सारांश - ममत्त्व वाला त्यागी नहीं है, और ममत्व रहित त्यागी है, यह भेद है । परमें अपना कुछ हिस्सा मानने वाला महान् परिग्रही है ! मिथ्यादृष्टि ) और परमें अपना हिस्सा न मानकर सिर्फ उसमें कुछ राग करनेवाला 'अल्प परिग्रही' है, यह तात्पर्य है । लोकमें बाह्य परिग्रहको त्यागने वाला त्यागी कहलाता है और शास्त्र में अंतरंग परिग्रहको त्याग करने वाला त्यासी कहलाता है तथा दोनोंका पूर्ण त्याग करनेवाला परिग्रह रहित 'निष्परिग्रही' मोक्षगामी होता है दूसरा कोई नहीं यह नियम है। फलत: करणानुयोगसे सम्यग्दृष्टि गृहस्थ भो कथंचित् त्यागी कहा जा सकता है, क्योंकि उसके पर प्रदार्थ में रुचि व स्वामित्व नहीं रहता इत्यादि ॥ ३१ ॥
१. ममत्त्वके दो अर्थ है ( १ ) राग करना या ममता करना ( २ ) मेरा कुछ हिस्सा इसमें है ऐसा
भानना ।