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पुरुषार्थसिरप (१) जिस समय जीव (आत्मा) को विपरीत अभिप्राय रहित ( सम्यक ) तत्त्वोंका पूर्ण अर्थात आठ अंगों ( निःशंकितादि ) सहित अष्टांगों ज्योंका त्यों श्रद्धाम होता है उस समय उसको निश्चय सम्यग्दर्शन अश्रवा अष्टांगी सम्यग्दर्शन वाला सम्यग्दष्टि जीव कहते हैं यह निष्कर्ष है। तथा
(२) जिस समय जीवको विपरीत अभिप्राय रहित उक्त सात तत्त्वों का ही अपूर्ण अर्थात् कुछ अंगों सहित या एक दो अंगों सहित सम्यग्दर्शन होता है, उस समय उसको उपचार या व्यवहार से सम्यग्दर्शन बाला ( अष्टांग विना भो ) सम्यग्दष्टि कहते हैं । अर्थात् आंशिक सम्यग्दर्शन के समय भी पूर्ण सम्यग्दृष्टि जैसा उसको कहना या मानना, यही सम्यग्दर्शनमें व्यवहारपना या उपचारपना है। जैसे कि मोक्षमार्गोपयोगी तत्त्वोंमें अकेला संशय ( शंका ) न होने पर या अकेली आकांक्षा न होने पर या दोनोंके न होने पर भी यह सम्यग्दृष्टि तो कहलायेगा ( सम्यक श्रद्धा मूल में होनेसे ) किन्तु आंशिक सम्यग्दर्शन होनेसे उसका नाम व्यवहार सम्यग्दृष्टि होगा। यह खास भेद समझना चाहिये । इसी तरह सम्यग्ज्ञान व सम्यकचरित्रमें भी निश्चय और व्यवहारका रहस्य ( प्रयोजन-अर्थ ) समझना अनिवार्य है।
भावार्थ----जबतक पूर्ण या सर्वांग न होवे तबतक अपूर्णतामें अंगी कहना या मानना, उपचार या व्यवहार है। और जब पूर्ण या सर्वागी हो जाय, तब अंगी कहना निश्चय या भतार्थ है। इस तथ्यको हृदयंगम करना विवेकी या सम्यग्दृष्टिका कर्त्तव्य है। देखो, इसी सिद्धान्तको लेकर चौथेसे तेरहवें गुणस्थानके पहिले तक ९ गुणस्थानोंमें पूर्ण मोक्षमार्ग ( सम्यग्दर्शनादित्रय) नहीं होता अपितु आंशिक था अपूर्ण होता है, परन्तु वह आंशिक निश्चय होनेसे प्रामाणिक होता हैमाना जाता है । फलतः उसको व्यवहारनयसे पूर्ण मोक्षमार्गवाला या मोक्षमार्गी कहा जाना है ! इस तरह सम्यग्दर्शनादि तीनोंमें निश्चय-व्यवहारपना घटित होता है। उसके माननेसे धोखा नहीं होता--भ्रम या मिथ्यात्व मिट जाता है यह लाभ तो बराबर होता है किन्तु जबतक पूर्णता न हो ( अधुरापन रहे ) तब सक कार्य सिद्ध नहीं होता यह नियम है। तदनुसार व्यवहार या अधूरापनका मिटाना अनिवार्य है अर्थात् पूर्णता ( निश्चयपना ) को प्राप्त करना परम कर्तव्य है या सिद्धिका माधक है। फलतः निश्चय उपादेय है और व्यवहार हेय है किम्बहुना इसे समझना .... चाहिये।
इसके पहिले भी भेद बताया गया है इलोक नं. ५ आदि में व इलोक नं० २२ में खासकर निश्चय व्यवहारके भेद बताए गये गये हैं कि व्यवहार तीन तरहका होता है (१) भेदाश्रित अर्थात् खंड रूप या अखंडमें खंड करना रूप । अथवा खंडको पूर्ण वस्तु मानना रूप । पराश्रित अर्थात् वस्तुको पराधीन मानने रूप । (३) पर्यायाश्रित अर्थात् पर्यायके भेदसे वस्तुको भेद मानने रूप। इत्यादि सब उपचार या कल्पना मात्र है, सत्य नहीं है। किन्तु यथार्थ श्रद्धान व ज्ञानके होते हुए यदि वैसा विकल्प हो तो यह व्यवहार रूप माना जाता है, उसमें हेय बुद्धि रहती है अत: बह कथंचित् उपादेय रूप है। लेकिन यदि विपरीत श्रद्धान ज्ञानरूप हो तो वहीं मिथ्यारूप है सर्वधा हेयरूप है हानिकर है