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पुरुषार्थसिद्ध्यर्थं
मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्रके द्वारा अनादिकालसे व्याप्त प्रबल अन्धकार को नष्टकर स्वच्छ बनावे, ( निर्मल करे ) [ च ] और [ दानतपो जिनपूजावियातिशयः जिनधर्मः प्रभावनीयः ] बड़े २ दान देकर अर्थात् चारों प्रकार के अनुपम दानोंसे, पंचकल्याणकादिसह जो तथा उच्चकोटि का तपश्चरण धारण करके, उच्च ज्ञान प्राप्त करके या मन्त्रादि विद्या साधन करके 'जैन धर्म' या जनशासनकी प्रभावना ( महत्व ) संसार में प्रकट करे-- चढ़ावे | इसीका नाम आठवां प्रभावना अङ्ग है। लोकमें अपने उत्कृष्ट धर्मको हर तरहसे जाहिर करना प्रभावना कहलाती है, गृहस्थका या अनगारका यह भी कर्तव्य है ||३०||
भावार्थ- दानादि देने के भाव व क्रियाएँ सब शुभराग हैं । कषायकी मन्दता होनेपर वे हुआ करते हैं, उससे लोक में प्रतिष्ठा बढ़ती है--नामबरी होती है, परलोक में सहायक पुण्य बन्ध होता है, मनमें प्रसन्नता होनेसे पापका आस्रव नहीं होता, इत्यादि लाभ होता है | यद्यपि यह भी हेय माना गया है किन्तु पदके अनुसार उसका होना अनिवार्य है । समय २ पर सभी तरहका विकास आत्मामें होता है कोई आदर्यकी बात नहीं है । सम्यग्दृष्टि सरागी और विरागी दोनों तरह होते हैं फलतः सराग अवस्थामे पुण्य भी कथञ्चित् उपादेय है ( पापसे बचनेके लिए और संसार में सुखद जीवन बिताने के लिए ) अनादिसे ऐसा ही होता चला आ रहा है । पुण्यको उपादेय मानना यह व्यवहारनय का कथन है - निश्चयनयका नहीं है। जो बन्धका कारण और अपामार्गरूप हो वह अकिचनरूप ( परिग्रह रहित ) कदापि नहीं हो सकता इत्यादि, वह उत्सर्ग मार्गी नहीं माना जा सकता इति ।
आठ अङ्ग के दो प्रकार ( भेव )
( १ ) निश्चय प्रभावना वीतराग सम्यग्दर्शनादिको प्राप्ति करना रूप निर्विकल्प दशा ( पक्षपात रहित अवस्था ) का होना है जो निश्चय प्रभावना कहलाती हैं। उससे निजधर्म ( आत्मधर्म ) की प्रभावना होती है तथा अप्रभावना ( मिथ्यात्वादि ) नष्ट होती है इत्यादि । यह स्वाश्रित ( अपनी ) प्रभावना है।
( २ ) व्यवहार प्रभावना - लोकमें जिनधर्म या जिनशासनको प्रभावना करना और उसके.. लिए दान, तप, जिनपूजा करनेरूप शुभरागका आत्मामें होना यह सब शुभ उपयोग और शुभ योग दोनों व्यवहार प्रभावनाके अ ( सूचक ) हैं ऐसा समझना । वह पराश्रित होने से व्यवहाररूप प्रभावना है। दान परद्रव्य ( धनादि ) से होता है तप, शरीररूप परद्रव्यसे होता है, पूजा, अष्टद्रव्य ( जलादि परद्रव्य ) से होती है इत्यादि समझना ।
१. आहारदान, औषविदान, शास्त्रदान, अभयदान ।
२. नित्यपूजन, आष्टात्रिक पूजन, चतुर्मुख पूजन, कल्पद्रुम पूजन । ३. अकी
तम्यतं चेतदतस्तापोऽशुभास्ववः । तत्तत्प्रसादाय सदा श्रेयसे कीर्तिमर्जयेत् ॥८५॥
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-- सागारधर्मामृत २ अध्याय
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