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पुरुषार्थसिधुपायं जीवोंको धर्म में लगानेका जो प्रयत्न करता है, उसको व्यवहार स्थितिकरण अङ्ग कहा जाता है यतः वह पराश्चित है पुण्यबन्धका कारण है। इसमें विराग व शुभ रागका असली भेद है किम्बहुना । स्वाचित पराश्रितका भी बड़ा भेद है अस्तु ॥२८॥
७-वात्सल्य अङ्गका स्वरूप बताते हैं अनवरतमहिसायो शिवसुखलक्ष्मीनिवन्धने धमें। . सर्वेष्वपि च सर्मिषु परमं वात्सल्यमालम्व्यम् ॥२९॥
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पद्य मोक्षरक्ष्मी संगम' कारण-धर्म अहिंसारू है। अरु उसके पालनहारे भी, प्रीति योग्य कर्तब यह है ॥ अ सातवाँ सम्यग्दर्शन, रक्षक वस्सल होता है।
इसीलिए वह धरण योग्य है-सम्पष्टि धरता है ॥२९॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि । अनवरतं ] निरन्तर सम्यग्दष्टिको [ शिवसुखलक्ष्मीनिधने अहिंसायां श्वमें ] मोक्ष लक्ष्मोके सुखकी प्राप्ति के कारणभूत अहिंसा परम धर्ममें | अपि] और [ सर्वेषु सधर्मिषु परमं वात्सल्य आलम्म्यम् ] अहिंसा धर्मके पालनेवाले धर्मात्मा जीवों में नि:स्वार्थ वात्सल्य करना चाहिए ( प्रीतिका बर्ताव या प्रदर्शन करें) यही वात्सल्य अङ्ग कहलाता है ।।२९।।
भावार्थ-साधारणतः वात्सल्य, प्रेम या प्रीति करनेको कहते हैं । परन्तु उसके दो रूप होते हैं। (१) प्राणिमात्रसे प्रीति करना' । (२) धर्मात्माओं व धर्मसे प्रीति करना । साधारण प्रीति तो स्वार्थ या रागादिके कारण संसारी जीव किया ही करते हैं-स्त्री पुरुषसे पुरुष स्त्रीसे, तन धन जन सभोसे यह प्राकृतिक है। परन्तु यह अशुभराग (प्रीति ) कहलाता है जो पापबंधका कारण माना गया है। किन्तु जो धर्मानुराग निःस्वार्थ होता है, उसको शुभराम कहते हैं, उससे पुण्यबन्ध होता है। अतः वह अशुभको अपेक्षा अच्छा माना जाता है। इसी अभिप्राय ( दृष्टिकोण ) को मुख्यता देते हुए आचार्य महाराजने मोक्षके या उत्तम सुखके कारणभूत अहिंसा धर्ममें अथवा उसके सेवकोंमें चि या वात्सल्य करनेका उपदेश सराग अवस्थामें दिया है जो उचित ही है । संसारमें
और तन-बन आदि संयोगी पर्यायमें रहते हुए यदि कोई पापबन्धसे बच जाय यही बड़ा लाभ त्व हित है। आजकल अधिकांश लोगोंकी विषय-कषायको बढ़ानेको प्रवृत्ति हो गई है। धर्म और सच्चे धर्मात्माओंसे प्रीति हटती जा रही है। ऐसे अज्ञानी जीव, इस असार संसारमें ही मोक्षका व सुखका ख्वाब ( स्वप्न ) देख रहे-ख्यातिलाभ पूजा आदिको बाहमें ही मान हो रहे है यह बड़े दुःखको बात है, कैसे उद्धार हो यह चिन्ता है । जबतक विपरीत बुद्धि ( विचारधारा ) नहीं छूटती तबतक
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• १. शप्ति।
२. सत्त्वेषु मैत्रीम् ।