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सम्यग्दर्शन कल्याण होना असम्भव है। सम्यग्दर्शनके प्राप्त हुए बिना तथा उसके अङ्ग पाले विना कल्याण कदापि नहीं हो सकता यह नियम है । आत्म-कल्याणका कर्ता उसका स्वभाव या धर्म ही है जो उसी में रहता है और बह 'उत्सर्गरूप' है। अर्थात सबके त्यागरूप अथवा सबसे पृथक् स्वतन्त्ररूप सदा स्थायी : नित्य ) स्वस्थ...र वस्तुमें रहता है, वह कभी अपवादरूप नहीं होता (पराश्रित या बदनाम नहीं होता) ऐसा नियम है । आत्माको लक्ष्य करके कहा जाय तो, आत्मा भी जबतक अपवाद मार्गको ( शिथिल व सदोष मार्गको ) असाहता . प्रयको छोड़कर अपना शुद्ध या उत्सर्म सनातन मार्गको नहीं अपनाता, तबतक वह संसारमें ही भटकता रहता है किम्बहुना वह मार्ग शुद्ध अहिंसा या वीतरागतारूप है अन्य रूप नहीं है इति ।
उसके निश्चय और व्यवहार रूप (१) वीतरागतारूप या अहिंसारूप निजस्वभावमें रत या लीन रहना उसी में दत्तचित्त रहना तन्मय होना, निश्चय वात्सल्य है वह उपेक्षारूप है । तथा स्वाथित या स्वाधीन है।
(२) साधक धर्मात्माओंसे अनुराग करना, उनमें भक्ति, आदरभाव रखना उनके प्रति उत्सुक होना-हर्ष मनाना, इत्यादि ब्यवहार वात्सल्य है जो उपेक्षारूप है ( पराश्रित है ) । इनमें से पद व योग्यताके अनुसार पालन करना उचित होता है। परन्तु विवेकष्टि जामत रहना चाहिये अस्तु । इस प्रकार निश्चय और व्यवहार दो रूप वात्सल्य अङ्ग कहा गया है इसको समझना चाहिये ॥२९॥
८ प्रभावना अङ्गका स्वरूप बताते हैं अस्मा प्रभावनीयः रत्नत्रयतेजसा सततमेव । दानतपोजिनपूजाविधातिशयैश्च जिनधर्मः ॥३०॥
पञ्च रत्नत्रय सम्पादन करके जीव प्रभावित होता है। दानादिकके करनेसे, जिन धर्म प्रमावित होता है ॥ निश्चय अरु व्यवहार प्रभावन समक्ष को निम दिन प्यारे ।
अतिशय नाम प्रभावनका है, उससे होत करम न्यारे ॥३०॥ भन्थय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि विवेकीको चाहिये कि वह [ ससतमेव ] निरन्तर [ नप्रयोजसा आग्मा प्रभावनीय: ] रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकनारित्रका उजेला करके अर्थात् उन्हें प्राप्त करके अपनी आत्माको प्रभाधना करे, अर्थात् मिथ्यादर्शन,
१. आतमके अहित विषयकवाय, इनमें मेरी परिणति न जाय । ...-40 दौलतरामजी कृत विनती २. निज आत्माको प्रभावना होती है----आत्मामें अतिशय या विशेषता प्रकट होती है।
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