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বাল उसको कलंकित करना महान अधर्म है या धर्मका व्याधात है। उसकी शुद्धि करना धर्मात्माओं का कर्तव्य है। धर्म स्वभावको ( वस्तुस्वभावो धर्मः ) कहते हैं तदनुसार स्वभाव ( प्राणभूत गुण ) का घात यथासंभव नहीं करना चाहिये अथवा विभावभाव ( विकारी परिणाम ) नहींकरना चाहिये और उसके लिये आत्मबलका प्रयोग करना चाहिये। अन्यथा पुरुषार्थहीनता समझो जावेगी किम्बहुना । मोक्ष पुरुषार्थका हीनता जीवनका सबसे बड़ा अपराध है, इसको कभी नहीं भूलना।
सामाजिक व्यवस्था या लौकिक व्यवस्था का स्थान धार्मिक व्यवस्थासे भिन्न रहता है। उसमें निग्रहानुग्रहका समावेश रहता है ( रागद्वेषका भाव रहता है ) तथापि उसमें भी विवेको जीव शुद्ध भावसे भाग लेते हैं। लोकरीति के अनुसार सच्चा न्याय ( शासन ) करते हैं। अर्थात् शुद्ध हुदयवाला जीव शंकाभय, लोमलालच, उच्चतानीचता ( जातिपांति ) अज्ञाताला, अरक्षा ( कटोरता या निर्दयता] स्वार्थपरता । लापरवाही) अप्रीति, अनुन्नति । उपेक्षा ) आदि निम्न या क्षुद्र विचारोंसे सर्वथा दुर रहता है, तभी वक्ष श्रेष्ठ व आदरणीय बनता है। सत्य निर्णय करने के लिये कोई दवाउरा या स्वार्थ नहीं होना चाहिये, न भय व घृणा होना चाहिये। तभी समाजोन्नति व देशोन्नति कर सकता है व हो सकती है। अर्थात् उसके लिये भी बाहिर आठों अङ्ग होना चाहिये इति ।
समाजशास्त्र ( लोक शासन ) में भी दंडव्यवस्थाका होना अनिवार्य है अन्यथा वगावत या गड़बबड़ी ( अराजकता ) का होना संभव व शक्य है । धार्मिक व्यवस्था भी ऐसा ही नियम है।
{१) निश्चय उपमूहन-अपने शुद्ध वीसरागतारूप धर्मको बढ़ाना-उसमें वित्तको लगाना दृढ़ रखना, उपयोग हटने पर पुनः पुनः आत्मबल द्वारा उसीमें लगाना । बस, यही निश्चय उपमूहन अंग कहलाता है । इसके विषय में पूज्यपाद स्वामी कहते हैं यथाअधिधाभ्यामसंस्कारैखशं शिप्यते मनः, तदेव ज्ञानसंस्कारैः स्वतस्सवेऽवतिष्ठते ॥११॥
( समाधिशतक) अर्थात्---अनादिकालके अज्ञानका संस्कार ( वासना ) होने से जीवोंका चित्त स्थिर नहीं होता बार २ चल चूक हो जाता है, अतएव भेदज्ञानके द्वारा ज्ञानका संस्कार डालनेसे तथा १: वेसणधरणविश्वगणे जीवे दट्यूण धम्मभत्तीए । उपगृहणं करितो सणसुद्धो हदि एसो ॥६४|| पंचाचार अधिक मूलापारे।
अर्थ --- जो लीय अपनी आत्मामे मा दूसरों की आत्मामें मोजूद दर्शन वा चारित्रगुणको मलीन (विवर्ष) या अशुस बेखकर, उसको निकाल देता है...शुज व निर्मल कर देता है । दोषरहित बना देता है ) अर्थात अपने आस्माकी अशुद्धतासे रक्षा करता है वहां जीय शुद्ध सम्यग्दृष्टि अर्थात् उपगृहन अंगका पालनेवाला होता है ऐसा जानना ॥२४॥