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सम्यग्दर्शन
१५ लेन-देन रिश्तेदारी आदि जैसी मानी जाती है वैसी ही मानना, लोकमें असत्य नहीं मानी जानी सत्य मानी जाती है। इसका माम व्यवहार कुशलता है। सम्परदुष्टि दोनों नयोंको समझता व वर्तता है कदाचित् भूल हो जानेपर पछताता है, उसमें दुःख मानता है. भूलको मिटाने का प्रयत्न करता है इत्यादि । व्यवहार में लोकव्यवस्था न आस्था नहीं बिगड़ती वह लोकव्यवहारी चतुर जीव, सबको ज्यों-का-स्यों । हेय उपादेव ) समझता हुआ प्रवृत्ति करता है ( श्रद्धा जुदी २ रहती है-उसीका जसे फल लगता है क्रियाका नहीं । किम्बहमा। मढ़ता अज्ञान है अपराध है और वह बन्धका कारण हैं। लेकिन वहांपर व्यवहाग्नयसे अमढता रखना अर्थात मढता नहीं करना । इसका मतलब, कुदेव, कुगुरु, कुधर्म, कुशास्त्रके ( परके ) बाबत भूल या अज्ञान निकालनेका है, जिससे उनका आदर आदि न किया जाय, छोड़ दिया जाय- सम्यग्दर्शन में दोष न लगे इत्यादि वचत होती हैं जो इष्ट है ऐसा समझना इति ।
५----उपगहन अंगका स्वरूप बताते हैं "धर्मोऽभिवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया । परदोषनिगृहनमषि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम् ॥ २७ ।।
आतम धर्म बलाना निश्यथ उपगृहन कहलाता है। मदिन आदि भावना दलसे परके दोष दृवासा है। सह उपमहान व्यवहारमयका-दोनों भेद जान करके।
सम्यग्दृष्टि अपनाता है - यथायोग्य पदमें रहके 11 २७ ।। 'अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [सदा स्मधर्मः बनायः सम्यग्दष्टिको हमेशा आत्मधर्मको बीतरागता रूप भावको बढ़ाना चाहिये। तथा [ मार्दवाचिभावना उपहाण गणार्थ
१. वीतरागताप, निश्चय धर्म तथा कलायकी मन्दतारूप शुभ धर्म, व्यवहार धर्म। २. मान या अहंकार न करनेस बिनय प्रकट होनेसे-धर्मानुराग होनेसे । ३. हुकना-प्रकट न करना, यह भी कषायकी मन्दतामें हो सकता है। अपने गणों को प्रकट या जाहिर नहीं
करना, मान कषायको मन्दताका फल है। और दूसरोंके औगुणोंको प्रकट नहीं करना यह भी कयाय
को मन्दताका फल ( कार्य । है-दोनों ही कषायको मन्दतासे होते हैं। ४, विकार या दोष । ५. आत्मधर्म। . ६. बढ़ाना-पूर्ण करमा । , पंडित विद्वान् । ८. उपगृहन अंग पालना 1