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सपासमुकाय परदोषनिगहममपि विधेयम् ] मानादि कषायको छोड़कर गुण या धर्मको बढ़ानेके लिये ही---दुसरौं के दोषोंको भी ढकना चाहिये, जिससे अपना व पराया धर्म बढ़ जाय या बढ़ सके ।। २७ ।।
यहाँ पर निश्चय उपगृहन व व्यवहार उपगृहनका निरूपण किया है ! स्वाचित व पराश्रित ) इति ।
भावार्थ-पुण्यबंधका कारण विशुद्धता रूप धर्म ( व्यवहार धर्म ) मानादि कषायोंकी मन्दतासे ही बढ़ सकता है अन्यथा नहीं। कारण कि जबतक मान आदि कषायोंका तीव्र उदय रहता है तबतक बहुत अहंकार ( गवं-धमंड ) आदि विकारीभाव जीवके होते रहते हैं। बह जीव संसारमें नामवरी उच्चता ख्याति आदि बहुत चाहता है एवं अपने सामने दूसरोको तुच्छ ( नगण्य ) लेखता है अर्थात् मानके पहाड़ पर चढ़ा रहता है। ऐसी स्थिति में तीत्र मान कषायवश अपने में मौजूद ब मैर मौजूद गुणोंको प्रकट करता है. उन्हें दूसरोंसे प्रकट करवाता है तथा अदेखसक्राभावसे दूसरोंके थोड़ेसे दोषोंको चढ़ाबढ़ाकर प्रकाशित करता है, उन्हें नीचा दिखाता है, जिससे दोनों से किसी के भी गुण या वर्म नहीं बढ़ पाते, कारण कि पापकर्मका बंध होनेसे विघ्न आ जाता है इत्यादि हानियाँ होती हैं। अर्थात् चाह या चिन्तवन के अनुसार पदार्थोंका परिणमन या कार्य कभी नहीं होला यह तात्पर्य है।
(१) कषायको मन्दतारूप धर्मको उपगृहन अङ्ग कहना व्यवहारनयका विषय है। (वह पराश्रित है ।
(२) निश्चयनयको अपेक्षा कषायोंका अभाव होना वीतरागतामें स्थिर होना सच्चा उपगूहन है। जिससे जीवको पाप 4 पुण्य दोनोंका बंध न होनेमें पूर्ण रक्षा होती है ऐसा समझना चाहिये।
धर्मके यो रूप माने जाते हैं ( १ ) निश्चय रूप--वीतरागतामय, पुण्यपाप परिणामोंसे रहित पूर्ण शुद्ध 1 { मोक्षका कारण)
(२) व्यवहार रूप----शुभरागमय, पुण्यपरिणाम सहित, अपूर्ण शुद्ध । ( संसारका कारण) फलत: मोक्षका मार्ग एक ही है और वह निश्चय रूप पूर्ण शुद्ध है ऐसा समझना चाहिये।
१. स्वयंशद्धस्य मार्गस्य बालाशकजनाश्रयां । वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति तद वदन्त्युपगृहमम् ।। १५ ।।
अर्थ : स्वभावसे शुह दोष रहित वीतराग मोक्ष मार्गमे । रत्न-त्रय ) में यदि किन्हीं अज्ञानी या असमर्थ लोगोंके द्वारा दोष ( वाच्यता ) लग जाय मा लगा दिया जाय तो उसको दूर करना या एक देना अपगृहन अंग कहलाता है। यहां पर भी अपने दोषोंको दूर करना वीतरागता धारण करना, निश्चय उपगृहन है ( स्वाश्रित ) और दूसरोंके दोच्चको दूर करना या वैसी भावना रखना, व्यवहार उपगृहन है ( पराश्रित है ) यह भेद समझना चाहिये ।। १५ ।।