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जीव च्यका लक्षण
(४) जैन. मोक्षमें वायोपशमिक ज्ञानका अभाव हो जाता है. क्षायिक ज्ञान रहता है अर्थात्
ज्ञानका सर्वथा अभाव कमी नहीं होता, हमेशा रहता है। ( ५ ) जैन-आत्मा व ज्ञान एक है मुणगणी में भेद नहीं है, व असंख्यात प्रदेशी है---प्रदेश कभी
घटबत नहीं होते—सभी प्रदेशों में ज्ञान रहता है, ज्ञानसे खाली कोई प्रदेश नहीं रहता । सभी प्रदेशों में सुख व दुःखका ज्ञान होता है। आत्मा छोटा व बड़ा नहीं होता शरीर छोटा बड़ा होता है इत्यादि। हां, प्रदेशों में संकोच विस्तार (संहार
विसर्पण ) होता है, दीपकले प्रकाशकी तरह जानना । (६) चार्वाकमत--यह जीवकी उत्पत्ति मानता है अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन
पांच तत्वों के मिलनेसे नया जोव उत्पन्न हो जाता है और मरकर पुनः पांच रूप बटवारा हो जाता है-सब अपने २ में मिल जाते हैं इत्यादि । उदाहरणके कि वे गोबरका नाम लेते हैं कि उसमें गबरोला वगैरह कितने ही भिन्न २ तरहके जीव पैदा हो जाते हैं ऐसा समझना, वह सब मिथ्या कल्पना है, जीव कभी पैदा नहीं होता न मरता है तथा उनकी संख्या भी घटबढ़ नहीं होती, सदैव नियमित रहती है किम्बहुना । जीव यह नाम ही सदैव जीवित रहनेकी अपेक्षासे बड़ा है और वह स्वतः सिद्ध है कृत्रिम नहीं है वह नित्य अविनाशी है परन्तु परिणामी है। कहा भी है कि...
तदर्ह अस्सनेहाती रोष्टेर्भवस्मृतेः ।
भूतानन्वयनात सिदः प्रकृतिहः सनातनः ।। आचार्य कहते हैं कि जो जीव निश्चयनयका आलम्बन करते हैं वे ही पुरुषार्थ की सिद्धि ( सफलता ) को प्राप्त कर सकते हैं अर्थात् कृतकृत्य हो सकते हैं, संसारसे पार हो सकते हैं यह फल दिखते हैं
सर्वविक्तातीर्ण यदा स चैतन्यमचलमाप्नोति । भवति तदा कृतकृत्यः सम्यक्पुरुषार्थसिद्धिमापनः॥११॥
१. शर्व अर्थात् शंभुको' तरह विकारीपर्यायके छूटनेसे, यह आशय भो निकाला जा सकता है । भर्तृहरिशतके
एको रागिषु राजते प्रियसमादेहार्द्धधारी हो । मीरागेषु जिनो विमुक्तललनासंगो न यस्मात्परः । दुरिस्मरवाणपक्षविषयासक्तमुग्यो जनः । शेष: कामविम्बितो हि विषयान् मोक्तुं न मोक्तुं क्षमः १
1॥ ९७॥ २. शुद्ध सत्तामात्र अकेलापन ( एकत्त्वविभक्तरूप)।