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पुरुषार्थसिद्धभुशक सकता । मिथ्याज्ञामके समय भी जीव जानता ही है चाहे उल्टा क्यों न जानें, पर जानना गुण या स्वभाव नहीं छोड़ता अस्तु ।
ज्ञानकी पर्यायके भेद बानवी मुख्यतः दो पर्याएँ होती है ( १) शुद्धपर्याय ( २ ) अशुद्धपर्याय । जबतक ज्ञानके साथ पर द्रव्य का संयोग रहता है तबतक ज्ञानकी अशुद्धपर्याय रहती है यह सामान्य नियम है। विशेषतः जबतक ज्ञान के साथ मोहनीय कर्मका सम्बन्ध रहता है अर्थात् मिथ्यात्वादि व रागद्वेषादिका सम्बन्ध रहता है तबतक ज्ञानको अशुद्धपर्याय अथवा विभावपर्याय मानी जाती है। और जब ज्ञानके साथसे मोहकर्मका सम्बन्ध छूट जाता है तब ज्ञानकी शुद्धपर्याय पूर्ण प्रकट हो जाती है। इसके बीच में जबतक पूर्ण मोह कर्मका सम्बन्ध नहीं छूटता तबतक शुद्धाशुद्ध (मिश्र ) अवस्था ज्ञानको रहती है ऐमा समझना। चूंकि संयोगी पर्याय, अशुद्धपर्याय कहलाती है फिर भी एक दूसरेका तादात्म्य न होनेसे ( ऐक्य व समवाय न होनेसे ) द्रव्यकी अपेक्षासे वह शुद्धपर्याय ही मानी जाती है। भावार्थ-द्रव्यगत सामान्य पर्याय की शुद्धपर्याय और पर्यायगत विशेषपर्यायको अशुद्धपर्याय माना जाता है । फलत. सामान्यपकोषका क्षय ( बिनाश ) नहीं होता और विशेषपर्यायका प्रतिक्षण क्षय होता है ऐसा सिद्धान्त है।
संयोगीपर्याय में होनेवाले रामादिकको अशुद्ध निश्चमयसे कथंचित् जीवके कहा जाता है तथा कश्चित् जीयके नहीं हैं-औपाधिक हैं ( संयोगज है ) ऐसा कहा जाता है किन्तु पुद्गलके हैं ऐसा कहना गलत है.----संभवता नहीं है। द्रव्याथिकनवमें था निश्चयनयसे प्रत्येक द्रव्य शुद्ध है (परसे भिन्न है ) और पर्यायार्थिकनयसे अशुद्ध है ( व्यवहाररूप है ) ।
झानकी अणु व महत्पर्याय ज्ञानकी सबसे छोटी पर्याय ( अक्षर पर्याय ) सूक्ष्मनिगोदियालन्ध्यपर्याप्तक तिर्मचजीवके होती है तथा सबसे बड़ी ( महान् ) पर्याय सर्वज्ञ केबली ( मनुष्य ) के होती है परन्तु कोई ऐसा समय नहीं आता जिसमें ज्ञानपर्यायका पूर्ण ( सर्वथा ) अभाव या क्षय हो जाता हो जैसा कि अन्य मतवाले मानते व कहते हैं । यथा---- (१) नैयायिक वैशेषिक-मोक्ष, ज्ञान गुण व उसकी पर्यायोंका अभाव हो जाता है, हमेशा ज्ञान
गुण आत्मद्रव्यसे जुदा रहता है पीछे परस्पर संबंध होता है। वे गुण
गुणीमें भेद मानते हैं। (२) सांख्य-मोक्षमें, झेयाकार ज्ञानका अभाव हो जाता है-ज्ञान शून्य रहता है । व पुरुष
( आत्मा ) का स्वरूप चैतन्य मानता है यह केसी विरुखता है ? आश्चर्यजनक है। (३) बौद्ध ---मोक्षमें, दीपकके बुझ जानेकी तरह ज्ञान ( आत्मा) नष्ट हो जाता है इत्यादि । न
मालूम आत्मा कहाँ चला जाता है विचित्रता है।