________________
ी
at a
ear है, जिससे girl ( सुखकी प्राप्ति ) कभी नहीं हो सकती ।
हां, यदि वह अज्ञानी जीव, कभी अपनी भूलको समझे और उसको सुधारे अर्थात् विपरीत sara ज्ञानको छोड़कर सम्यक् (अविपरीत यथार्थं । श्रद्धान व ज्ञानको प्राप्त करें और अपनाचे तो बरावर सिद्ध हो अन्यथा नहीं ऐसा समझना । अनादिकालसे यहो तो हो रहा है। जो कहा' भी उसका विचार करो अस्तु ।
त्यजतु अपदिदानीं मोहमाजम्मीढम् | रत्पयतु रसकानां रोचनं ज्ञान ॥ इह कथमपि नात्मानात्मना साक्रमेक. 1
किल कलयति काले क्वापि सादात्म्यत्रुतिम् ॥ २६ ॥
समयसारका
अर्थ :- हे संसारके प्राणियों ( जगत् ) ! अनादिकालसे लगा हुआ ( भूतकी तरह ) अज्ञानभाव (परमें एकबुद्धि - विपरीतता ) को छोड़कर तुम शुद्ध सच्चे ज्ञानका स्वाद लेओ ( उसको चखी, अनुभव करो ) क्योंकि अभी तक तुमने झूठे अज्ञानका ही स्वाद लिया है। अतएव athसे लाभ उठाओ ! देखो, कभी तीन कालमें भी आत्मा (जीव ) का पर ( जड़ कर्मादि ) के साथ तादात्म्य ( सर्वथा एकस्व अभेद ) नहीं हो सकता - दोनों संयोगरूप जुबेर रहते हैं । फिर भूलसे तुम क्यों उनको अपना मानते हो अर्थात् वे तुम्हारे स्वभाव नहीं हैं विभाव ( विकार हैं, ऐसा सम्यग्ज्ञान प्राप्त करो और मिथ्याज्ञान छोड़ो इत्यादि । अतः तेरा कल्याच भेदज्ञानसे ही होगा arrer नहीं, यह निश्चय रख, किम्बहुना । सर्वोत्कृष्ट चीज जीवका ज्ञान ही है, जिससे सब बातोंका पता लगता है, अतः उसीकी आराधना करना चाहिये । यही बात आगे भी कही जाने वाली है ध्यान देना चाहिये ||१४
६३
आचार्य कहते हैं कि संसार में भूलका मूलकारण ( बीज ) विपरीत बुद्धिका होना है ( परमें एकस्वका ज्ञान हो जाना है ) उसको हटानेका मुख्य उपाय 'रत्नत्रय' को प्राप्त करना है अतएव उसीका क्रम निश्चयनय से बताया जाता है—
विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतच्चम् | यत्तस्मादविचलन स एव पुरुषार्थसिद्धयुषयोऽयम् ||१५||
१. अपनी मृध भूल आप, आप दुख उठायो । ज्यों शुक नभ चाल विसर नलनी लटकायां ॥ चेतन अनिरुद्ध शुद्ध दशबोधमय विशुद्ध तत्र, अड़ रस फरसरून पुल अपनायो || २. श्रद्धान (विपरीत अभिप्राय
|
३. निश्चय करना था जानना --- ज्ञान ।
४. आत्मस्वरूप ।
५. निजस्वरूप ( आत्मस्वरूप ) ।
६. चलायमान नहीं होना अर्थात् स्थिर रहना चारित्र |
५. वही स्थिरतारूप चारिष ।