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पुरुषार्थसिद्धयुपायं
अन्वय अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि [ यः ] जो शिष्य ( दीक्षार्थी उदासी ) [ बहुशः प्रदर्शित समस्त बार-बार विस्तार के साथ कहे गये या समझाये गये सकल त्याग व्रतको अर्थात् महाव्रतको (सुनि धर्मको ) [ कदाचित् ] किसी कारणवश खासकर अपनी शक्तिहीनता (कमजोरी ) के कारण [ न गृह्णाति ] नहीं ग्रहण कर सकता है ( हो ) [ वस्थ ] उस जैसे शक्तिहीन शिष्य को [ अनेन बीजेन ] इस कमजोरी के सबब ( हेतु से ) [ एकदेशविरशि: कथनीया ] एक देशव्रत ( अणुव्रत ) धारण करनेका उपदेश देना चाहिए या अणुव्रतकी ( श्रावक धर्मकी ) दीक्षा देना चाहिये, ऐसी आज्ञा है. यह क्रम या पूर्व शिष्ट परंपरा है ऐसा न्याय समझना ||१८||
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इस कथनको पुष्टिमें आगेका श्लोक लिखा गया है-( सम्बन्ध रखता है ) [य: अपमतिः ] जो कम बुद्धिका धारक दीक्षाचार्य ( गुरु ) यह गलती करता है कि पेश्तर [
श] उच्च यतिधर्म ( मोक्षका कारण सकलव्रत या महाव्रत ) को न कहकर अर्थात् धर्मका महत्वपूर्ण विवेचन या उपदेश न देकर गृहीधर्म अर्थात् श्रावक ( अणुव्रत ) का ही विवेचन करता है - महत्व दिखलाता है [ तरच भगवत् प्रवचने मिप्रहस्थानं प्रदर्शितम् ] उस कम बुद्धि दीक्षाचार्यका जैन शासनमें छोटा दर्जा अथवा दण्डके योग्य पद ( स्थान ) कहा गया है अर्थात् वह दण्डका पात्र है ऐसा बतलाया गया है। कारण कि वह स्वाधित अपराधी है, स्वयं गलती करनेवाला है, जिसका दण्ड ( प्रायश्चित् ) उसे अवश्य मिलता है या मिलना चाहिए । क्योंकि उसने जिनाज्ञा भंग करके चोरीका अपराध किया है, क्रम भंग किया है प्राचीन परंपराको तोड़ना जिनाशाको भंग करनेवाला महान् अपराधी होता है ||१८||
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भावार्थ - जैन शासन में जिनाशा पालनेका स्थान सर्वोपरि ( पहला ) है वह सच्चा जैन ( आज्ञा सम्यक्त्वी ) माना जाता है जो जिनाज्ञाकी अवहेलना नहीं करता वही सपूत है ( सम्यग्दृष्टि है ) जो प्राचीन शास्त्रीय परंपरा संस्कृति ) के अनुसार सदैव चलता है व भी चलाता है। इसके विपरीत जो चलता है - मनमाना बर्ताव करता है, प्राचीन ( संस्कृति ) की परवाह नहीं करता और उसको तोड़ता है तथा अन्य लोगोंको भी उसके तो, का उपदेश देता है, उन्हें प्रेरित करता है वह कुपूत ( मिथ्यादृष्टि ) है । पूर्ण ज्ञानी वीतरागीकी आज्ञा या उपदेशको नहीं मानना और रागद्वेषी कम बुद्धिवालोंकी आज्ञा मानना व महत्त्व देना महान मूर्खता व अज्ञान है, उनके समझकी कमी है अस्तु । इन्हीं सब सारभूत बातोंको लक्ष्यमें रखकर उपर्युक्त श्लोक बनाये गये हैं जिनमें स्पष्ट निर्भयता के साथ मुनियों-धर्मप्रवर्तक आचार्य के कर्तव्यका निर्देश किया है और कत्र्तव्यच्युत होनेपर भय ( भत्सना ) बतलाया गया है अर्थात् उनको
९. अपराध मार्ग ( दोषीक अवस्था ) 1
१०. पुष्ट करते या मानते या समर्थन करते ।
११. सुनिधर्म ( अनगार धर्म ) ।
१२. गृहस्थधर्म ( सागारधर्म ) |
१३. क्रमका उल्लंघन ( प्राचीन परंपराका खण्डन ) । १४. आशाका चुराना ।