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सम्यग्दशन
अपनाता है चाहे वह मुनि हो या गृहस्थ ( श्रावक ; हो, संयोगी पर्यायका वह तकाजा ( फल ) है। इसमें क्षेत्र काल आदि भो निमित्त रहा करते हैं। परन्तु वह सब दोषरूप या अतिचार रूप ही रहते हैं अनाचार रूप नहीं होते जबतक कि दृढ़ सम्यग्दर्शन मौजूद रहता है। वे अनन्त संसार के कारण : हेतु ) नहीं होते जबतक साश्रमें मिथ्यादर्शन न हो तबसक महाबंध होता ही नहीं है ! अनाचारका अर्थ खंडित हो जाना या छूट जाना होता है। फलतः सम्यग्दर्शनको रक्षा सेवा आराधना सदैव करना अनिवार्य है। उसके साथ अपराध भी होंगे व होते हैं परन्तु वे सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट नहीं कर सकते अर्थात् सम्यग्दर्शनको नहीं छुड़ा सकते और इसोलिये वे संसारमें रस्वनेको समर्थ मुख्यतया मिथ्यादर्शन ( मोह ) हो है और सहायक अनन्तानुबंधी कषाय भी हैं। क्योंकि उसके उदयमें ही मिथ्यात्व कर्मका बंध होता है। अतः बह संसारका परम्परया कारण ( हेतु या निमित्त ) है ऐसा समझना चाहिये । क्षणिक रागको अपना मानना और क्षणिक रागरूप उपयोगका होना ये दोनों पृथक्-पृथक् चीजें हैं। क्षणिक रागको अपना ( आत्माका } मानना मिथ्यादर्शन है और क्षणिक सगरूप उपयोगका होना सम्यग्दष्टिका विकारी भाव है... मिथ्यादर्शन नहीं है, उसे वह भिन्न और हेय ही समझता है। अतएव उसके अनन्त ( अक्षय अनन्त ) संसार स, बंध नहीं होता, कार के में रहनेका काल सिर्फ अधिकसे अधिक अर्ब पुद्गल परावर्त मात्र (परिमाण) ही रहता है जिसमें अनेक तरह के अनंतका बंध होता है, अनंत छोटे बड़े अनन्त किस्मके होते हैं। ऐसा समझना चाहिये किम्बहुना ।
निश्चय सम्यग्दर्शनके प्रकार-- ( १ ) जिनवाणी या जिनागमके कथन या उपदेश पर पूर्ण विश्वास करना यह निश्चय आज्ञा सम्यग्दर्शन है। यह एक प्रकार है।
(२) पर द्रव्योंसे भिन्न गुणपयाय वाला उत्पाद व्यय ध्रौव्ययुक्त चैतन्य स्वरूप आत्मा है, ऐसा विश्वास करना भी निश्चय सम्यग्दर्शन है। यह दूसरा प्रकार है। थोड़ा बहुत रद्दोबदल. ( हेरफेर ) लक्षणमें होने पर भी जबतक श्रद्धान नहीं बदलता अर्थात् वह विपरीत अभिप्राय सहित नहीं होता, तबसक कोई हानि नहीं होती वह मोक्षमार्गी रहता है, मूल चीज नहीं बदलना चाहिये यह खास समाधान है विचार किया जाय अस्तु ।
सामान्यापेक्षया--लौकिक पदार्थोंमें संशयादि करना, मिथ्यात्वका सूचक नहीं होता किन्तु विशेषापेक्षया-मोक्षमार्गोपयोगी पदार्थोमें, संशयादि करना मिथ्यात्त्वका सूचक हो
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प्रशस्त राग करता है अर्थात उसके भी प्रशस्त राग हुआ करता है, परन्तु वह उसकी मजबूरी की दशा है-पराधीन ( संयोग को ) विवशता है.---शौकिया नहीं है अर्थात् विना वाह के होता है, और असे यह हेम ही ( बलात्कार ) समझता है वह उसमें प्रेम ( राग या हर्ष ) नहीं करता विगारी की तरह वह उस कार्य को करता है। जैसे कि किसी दीन दुःखी प्राणी को देखकर उसके प्रति विशेष करुणाभाद ( दयालुता ) और उसका उपचार वह अवश्य २ करता है, उससे रहा नहीं जाला इत्यादि समझना यह अपवाद अबस्था है किम्बहुना।
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