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सम्यग्दर्शन
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होता, तो वह अखंड सम्यग्दृष्टि माना जाता है व रहता है अर्थात् उसका सम्यग्दर्शन खंडित कभी नहीं होता ! अटल रहता है । और कदाचित् उक्त मुलमन्त्र में ही कोई शंका या संशय करता है, तो वह सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता, किन्तु वह मिथ्यादृष्टि है ऐसा जानना । सम्यग्दृष्टिकी मुख्य पहिचान (चिह्न) जिनवाणी में पक्की श्रद्धा करना है, इसीके आधार पर सारा दारोमदार है | ऐसी स्थिति में यह ध्यान रखना चाहिए |
मोट-मूलकी रक्षा करते हुए ( जिनेन्द्र के कथनपर अटल श्रद्धान रखते हुए। यदि लोकिक rain किसी कारणवश सराग सम्यग्दृष्टि, स्वार्थ पूर्ति के लिए या पराधीनतामें आकर या अज्ञानता या असमतामें कोई गलती कर बैठे तो वह सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट ( च्युत या खंडित ) नहीं हो जाता किन्तु वह सम्पदृष्टि रहता हुआ अपराधी या अतिचार सहित अवश्य माना जाता है । इसका कारण यह है कि उसकी श्रद्धा जिनोपदेशके विपरीत ( विरुद्ध ) नहीं होती और अपनी reater गलती वह मानता है व उसे हेय समझता है इत्यादि । उसके अन्दर जिनवाणी या जिनोपदेशके प्रति सत्यनिष्ठा है. यही उसकी सम्यग्दृष्टि है ( विचारधारा है । जिसकी सम्यग्दृष्टि को खास आवश्यकता है | वह गलती पर दुःख मानता है ( पश्चात्ताप या खेद करता है । तथा यथाशक्ति उसको छोड़ने का प्रयत्न भी करता है ये शुभ लक्षण उसके होते हैं।
freiter in freeचय और व्यवहारपना बताया जाता है ( निरतिचार व सातिचारपनाका स्पष्टीकरण )
(क) निश्चयपना - जबतक नि:शंकपना शुद्ध रूपमें रहता है अर्थात् उसमें सिर्फ रागादिसे रferent war निर्विकल्पना रहता है, तबतक उस निःशंकित अगकी निश्चय दशा समझना चाहिए | संक्षेपमें बही निरतिचारता व बीतरागता है ऐसा समझना चाहिए, शुद्ध दशा वह है ।
( ख ) व्यवहारपना---जब नि:शंकपना होने के बाद, उस नि:शंकपने में रुचि या भक्ति या आदर बुद्धि-शुभ प्रवृत्ति या उसको प्राप्त करनेकी बांछा अभिलाषा आदि होती है तब उसकी व्यवहार दशा समझना चाहिए। वह अशुद्ध दशा है सराग दशा है इत्यादि । परन्तु मोक्षमार्गोपयोगी सात तत्वोंमें निश्चय और व्यवहार दोनों सम्यग्दृष्टियोंकी श्रद्धामें अन्तर ( फरक ) नहीं होता यह नियम है-मूलमें भूल कदापि नहीं होती अन्यथा मिथ्यादृष्टि तुरन्त बन जाय ध्यान रखना किम्बहुना !
नोट - निश्चयनयसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ये तीनों रत्न ( गुण ) शुद्ध वीतरागता रूप हैं तथा उनके अंग (चिह्न) भी शुद्ध वीतरागता रूप होना चाहिए, परन्तु जब उनके साथ अशुद्धता या रागादिका संयोग सम्बन्ध हो जाता है तब वे सब मूल व अंग व्यवहार रूप हो जाते हैं - शुद्ध रूप नहीं रहते, यह तात्पर्य है । सभी तो सम्यग्दृष्टि के यहाँ ५ अतिचार बतलाये हैं ।
१. शंका करना, २ . आकांक्षा करना, ३. ग्लानि करना, ४ अन्य दृष्टि ( मिथ्यादृष्टि ) की प्रशंसा करना, ५ . उसकी स्तुति करना ।
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