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पुरुषार्थसिद्धयुपाय सकता है। मोक्षमागोपयोगी तत्त्वोंमें संशयादि करना मिथ्यात्वका सूचक हो सकता है ऐसा निर्णय समझना चाहिये । यहाँ पर श्रद्धान कारणरूप है और सम्यग्दर्शन कार्यरूप है-ऐसा परस्पर कार्यकारणभाव है इसको नहीं भूलना चाहिये ।
___ कार्यकारणभावमें भ्रमबुद्धि और उसका निराकरण ( खंडन ) किसी भी कार्य (नवीन पर्याय ) की उत्पत्तिमें निश्चयनयसे मूलद्रव्य या शक्ति, तथा उसको पर्यायका व्यक्ति, ( प्रकटता ) कारण होती है, दूसरा कोई कारण नहीं होता, यह अटल { ध्रुव ) नियम है। इस तथ्यको समझनेवाला व्यक्ति ही सम्बग्दृष्टि है व हो सकता है। तदनुसार कार्यकारण भाव सही आंका जा सकता है उसमें कोई भ्रम या संशय नहीं हो सकता। फलतः द्रव्य और पर्याय दोनों ही नई २ कार्यरूप पर्यायोंकी उत्पत्तिमें कारण होते हैं अर्थात् अपने अपने में ही सच्चा कार्यकारणभाव सिद्ध होता है परके साथ सिद्ध नहीं होता बह केवल भ्रमबुद्धि है। द्रव्यमें शक्ति व व्यक्ति ( पर्याय ) दोनों चीजें रहती हैं। जीव द्रव्यमें, सम्यग्दर्शनकी शक्ति ( योग्यता ) ब व्यक्ति ( पर्याय ) अर्थात् सम्यग्दर्शनका प्रकट होना, यह जब संगम होता है, तभी उस जीवको मोक्षपर्याय मिलती है। अकेले एक कारण (द्रध्य या शक्ति) से अथवा पर्याय या व्यक्ति मात्रसे, मोक्षकी प्राप्ति कदापि नहीं होती न हो सकता है। जिसका खुलासा यह है कि जिस जीव द्रव्यमें मोक्ष जानेकी योग्यता ( भव्यत्त्व ) रहती है, उसी जीवके सम्यग्दर्शनरूप पर्याय प्रकट (व्यक्त) होती है और वही पर्याय, जब मोक्ष जानेके योग्य (अनुकूल ) शुद्ध परिग्रह रहित मोरासमतारूप होती है तभी यह साक्षात् मोक्ष पायके प्राप्त होनेमें कारणरूप होती है उसके पहिले नहीं। फलतः द्रव्य सहित अव्यवहित पूर्वपर्याय, उत्तरपर्याय ( मोक्षरूप ) में कारण पद्धती है यह निष्कर्ष निकलता है, जो सत्यरूप ही है, भ्रम या अन्यथारूप नहीं है। ऐसी स्थिति में सब बातोंकी योग्यता कर्मभूमियाँ पुरुष ( मर्द) में ही पाई जाती है, स्त्री पर्याय में नहीं, अतः वह मोक्ष नहीं जा सकती, साक्षात् कारण ( नग्नत्त्वादि वीतरागभाव ) की कमी ( श्रुटि) होनेसे वह असंभव है। कारण कि उतना आत्मबल उसके नहीं होता उसको ढकनेवाले विकारीभाव (लज्जा आदि उसके विशेष पाये जाते हैं, जिससे वह बल प्रकट नहीं हो पाता, दबा रहता है इति भावः ।
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१. इदमेवेदशमेव तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा । इत्यकंपायसाम्भोवत्सम्माऽसंशया ऋषिः ।। ११॥
-रलकरड था. समन्त ..अर्थ:-जस्ता जिनक्षणी तयका स्वरूप ( अनेकान्तात्मक ) कहा गया है वैसा ही है अन्य नहीं है अन्य प्रकार भी नहीं है इत्यादि संशय या शंका रहिस पक्षान करमा निकित अंग होता है जैसाकि खड्ग' का पक्का पानो अटल या स्थिर या विश्वासनीय होता है, उसमें संशय नहीं रहता वह नहीं बदलता इत्यादि जानना।
जीवाजीवाम्रबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तरवम् ॥४॥त. सूत्र।
से ही मोक्षमार्योपयोगी साल तत्व है, दूसरे नहीं है। ऐसा बट बड़ान करणा संशयादि नहीं करना पहिला अङ्ग है ।।११।। इति,
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