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सम्वन्दशन
हो जाता है ) इतना ही नहीं, सब द्रब्धगुण पर्याय स्वतन्त्र है--सब अपनी २ योग्यता । स्वभाव या उपादान ) से ही होते व मिटते हैं...-उनको कोई निमित्त ( कर्मोदयादि ) उत्पन्न नहीं करता न मिटाता है। ऐसी स्थिति में यदि हमारो ( जीवक्री ) इस संयोगोपर्यायमें कोई क्षुधा तृषादिकके विकारीभाव ( पर्याय ) अनचाहे भी अपनी स्वतन्त्रतासे स्वयं ही उतान्न हो जायें या हमारा ( आत्मद्रव्यका । उन पर कोई दवाउरा ( प्रभाव ) नहीं हैं वे स्वयं हो सकते हैं। फलत: न हम उनका कुछ कर सकते हैं न वे हमारा कुछ कर सकते हैं ऐसा दृढ़ श्रद्धान सम्यग्दृष्टिको होनेसे वह विकारोभावोंके होते समय अधीर खेद-खिन्न, चिन्तातुर व संक्लेषित नहीं होता, उसे वस्तुस्वभाव मानकर वह सन्तोष ही धारण करता है तथा यह यह भी जानता है कि ये तो बिकारीभाव हैं
और विनश्वर हैं नष्ट हो जावेंगे, अगर हम इनमें रागद्वेषादिक करते हैं तो हम और भी नये विकारोंसे और सज्जन्य कर्मबन्धसे बंध जावेंगे, जिससे हानि ही होगी। अतएव हमको विकल्प या सक्लेपता आदि न करके सन्तुष्ट हो रहना चाहिए जिससे नई आपत्ति न आने पावे और
यात्परता रहे. का होगा दन्द हो जाते, ऐसे बुद्धिमत्ता पूर्ण उच्च विचारोंसे हो सम्यादष्टि * कोई ग्लानि वगैरह विकारोभाव ( संक्लेशता दुःख) नहीं करता, स्वभाव भावमें स्थिर रहता है
तभी आत्मकल्याण होना सम्भव है। यही ज्ञायक स्वभावमें लीन होना है। शरीरादिक सब संयोगो. पर्यामरूप हैं अशुचि हैं अत: उनमें आस्था नहीं रखना चाहिए इत्यादि निर्विचिकित्सित अङ्गको समझना।
नोद-संयोगी अवस्थामें, भूख-प्यास आदिका लगना अर्थात् वैसा भाव होना पुद्गलकी पर्याय है तथा जीवके विकारी माद (पर्याय ) हैं और टट्टी आदि मल, सब पुद्गलकी पर्याय है ( जड़ रूप है ) यह वास्तविक भेद है।
निश्चय और व्यवहारको दो रूप निविचिकिस्थित अंगके निम्नप्रकार हैं। (१) निश्चयनिर्विचिकित्सित अङ्ग- वह है जिसमें कोई विकारीभाव न हो अर्थात संयोगीपर्यायमें विकागेंभावों । क्षुधादिक । के होनेपर भी स्वस्थ रहे, अपनी चीतरामता न छोड़े, शुद्ध स्वरूपमें लीन व तन्मय रहे, कोई सगादि व क्लेशता आदि न करे इत्यादि । कारण कि उनको पर जानकर रागद्वेष नहीं करता न करना चाहिए तभी बीरता है अस्तु ।
नोट- क्षुधा तृषादिक ये सब पुद्गलकी पर्याय हैं, उसी में होती व मिटती हैं तथा जीवद्रव्यमें भी वैसे रागादिरूप विकारीभाव होते हैं ऐसा निर्धार समझना चाहिये।
1) व्यवहार निविचिकित्सिता---वह है कि बाहिर शरीरादि अशुचि वस्तुओंसे घृणा या ग्लानि नहीं करना, इसमें पराश्रितता है। शरीर आत्मासे भिन्न है अत: उससे द्वेष या ग्लानि नहीं करना ऊपरी बात है। भीतरी बात भी तब है जब रागादिक बिकारीभाव आत्मामें से निकलें, न होवें अर्थात् रागादिक बुरे है ऐसा द्वेष रूप विकल्प भी भीतर न होवे, इत्यादि । क्योंकि लोकाचारमें कोई बाहिर जाति-पातिको ग्लानि छोड़ देते हैं, परन्तु ग्लानि या दुश्मनी बराबर रखते