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सम्यग्दर्शन
201 व्यवहार है। जो पराश्रित विभावरूप हैं। कारण कि आगे दोनों प्रकार से बस्तु ( पदार्थ-तत्त्व) का निर्णय करना अभीष्ट है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचरित्र और उनके विषय भूत पदार्थ तथा उनके अंगोंका वर्णन उभयरूपसे किया जाने वाला है। अतएव भ्रमनिवारणार्थ भूमिका तैयार की जा रही है। निश्चय और व्यवहार दोनों का स्वरूप पृथक् २ है तथा मान्यता भी पृथक २ रूप है। फलतः संयोगीपर्याध में उभय दशाएँ हुआ करती हैं। उनको यथार्थ पृथक् २ समझना अत्यन्त जरूरी है तभी आत्मकल्याण हो सकता है अन्यथा नहीं ।
उपसंहार कथन सम्यग्दर्शनके सम्बन्धमें पर्याप्त विवेचन किया जा चुका है, जिसका उसके साथ घनिष्ट सम्बन्ध था। यों तो सम्यग्दृष्टिके समुदायरूपसे ६३ गुण होते हैं जो स्वामिकातिकेय मुनिने अपने महान ग्रन्थमें लिखा है। प्रथा
। सम्यग्दृष्टिके ६३ गुण १-संवेग, २ निर्वेद, ३ निन्दा ४ गहाँ ५ उपशम ६ भक्ति ७ अभुकंपा ८ वात्सल्य ये आठ मूलगुण होते हैं ( धर्म व धर्मके फूलमें अनुराग होना संवेग कहलाता है ) अस्तु । शंका आदि पाँच अतिचारीकी छूटना ( अभाव होनी रूप ५ गुण, सात भयोंका छूटना रूप ७ गुण, तीन शल्योंका छूटना रूप ३ तीन गुण, पच्चीस दोषोंका छूटना रूप २५ गुण । आठ मूलगुणपालना रूप ८ गुण, सात व्यसनोंका त्यागना रूप ७ गुण कुल ६३ गुण होते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव उन्हें प्राप्त करता है व करना अनिवार्य है। इसके सिवाय सम्यग्दष्टिके सम्यग्दर्शनके आठ अंग ( अवयव या चिह्न) भी होते हैं, जिनके बिना सम्यग्दर्शन अधूरा रहता है या पहिचान नहीं होती, और फलस्वरूप वह सम्यग्दर्शन जीवको मोक्ष नहीं पहुंचा सकता, ऐसी स्थिति में उनका संचय करना अनिवार्य है। परन्तु वे आठों ही अग निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो २ प्रकारके होते हैं। इसका कारण यह है कि सम्यग्दर्शनके स्वामी दो तरहके जीव होते हैं . १) सरामी जीव (२) वीतरागी जीव । अतएव सरागी जोव, व्यवहाररूप आठ अंग पालता है और वीतरागी जीव, निश्चय रूप आठ अग पालता है यह निर्धार है ।। २२ ।।
परमार्थदशियोंने शुद्ध-निश्चयनयसे वीसरामता रूप अगोंको महत्त्व दिया है और अपरमार्थशियोंने व्यवहारनयसे सरागतारूप अंगोंको महत्त्व दिया है। फिर भी दोनों नयोंकी अपेक्षासे आगे आठ अंगोंका कथन आचार्य कर रहे हैं। उनमें पहिले...१. सुसो मुद्धादेसो गायत्रो परमभावदर्सीहि । व्यवहारदेसितः पृणये हु अपरिमेट्टिदाभादे ॥ १२ ॥
___-समयसार अर्थ : परमार्थदर्शी बोतरागियोंने ( निश्चयसम्बादष्टियोंने ) शुद्ध वीतरागताके आलम्बन लेनेका उपदेश दिया है क्योंकि उसीसे आत्मकल्याण होता है यह निश्चयनयका उपदेश है। और. अपरमार्थ-... दशियों शरागिओने ( व्यवहारसम्यग्दृष्टियोंने ) अशुद्ध सागताके आलम्बन करनेका उपदेश दिया है।