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दर्शन
संयोगपर्याय मौजूद रहती हैं, यह विशेषता बतलाई गई है । द्रव्यदृष्टिको अपेक्षासे तो कभी जीव ( आत्मा ) बंधता हो नहीं हैं, वह अबंध - परसे भिन्न शुद्ध है इत्यादि । सम्यग्दर्शन संसारकी जड़ ( मिथ्यात्व ) को नष्ट करता है। मिथ्यादृष्टिका संसार अनादि अनंत रहता है, अस्तु ।
क्रमबद्धपर्यायका ज्ञान व श्रद्धा को ही न है ? हा उत्तर सम्यको ही हो सकता है जो ज्ञायक स्वभावका आलम्बन करता है, सर्वज्ञताका अस्तित्व अपने में निश्चित करता है अर्थात् जो आस्तिक है वही क्रमबद्ध पर्यायका विश्वास कर सकता है किन्तु जो नास्तिक है वह नहीं कर सकता यह नियम है, ऐसा जानना अस्तु । पर्यां मात्र क्रमसे होती हैं, जिस क्रमसे सवंज्ञ केवलीने देखी हैं, उसी क्रमसे वे होती हैं अन्यथा ( कम भंग करके ) नहीं होती चाहे कोई कुछ भी करें, सब व्यर्थ है, मिथ्या मान्यता है । अथवा पूर्व पर्यायका व्यय होकर ही उत्तर पर्यायका उत्पाद होता है, यह क्रम हमेशा अटल रहता है । अर्थात् वह नहीं बदलता यह क्रमबद्धता पाई जाती है इसको समझना चाहिये ।
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अधिगमज सम्यग्दर्शन के भेद
( १ ) स्वाधिगमज, ( २ ) पराधिगमज |
क) जो सम्यग्दर्शन स्वयं ही जीवादि तत्वों की प्रमाणनयादिके द्वारा जानकारी प्राप्त करके उत्पन्न होता है, उसकी स्वाधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं । यह महान् दृढ या पक्का होता है, अर्थात् उसमें भ्रम या सन्देह नहीं होता इत्यादि, उसमें भारी विशेषता रहती है। यदि कदाचित् कोई ऐसी दृढ श्रद्धावाले सम्यग्दृष्टिको भुलाना हो तो वह कदापि नहीं भूल सकता । तभी तो बड़े २ उपसर्ग घोर दुःख दारिद्र आदि उपस्थित होनेपर भी वह विचलित नहीं होता मेरुकी तरह अटल रहता है अतः यह सर्वोत्कृष्ट है, प्रथम उपासनीय है ।
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( ख ) जो सम्यग्दर्शन, परके उपदेश आदिके द्वारा जीवादि तत्वोंका कथंचित् (कुछ) ज्ञान होनेपर या न होनेपर खाली आज्ञा या उपदेश पर निर्भर रहकर उन जीवादि तत्वोंका श्रद्धान करता है व कराता है, उसको पराधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं, जो अपेक्षाकृत कमजोर होता है । अर्थात् वह संभवत: कुछ विकृत हो सकता है, रूप बदल सकता है। वह विवेक रहित तोता जैसा है।
'जैसे किसी कमबुद्धि विद्यार्थीको जी स्वयं परीक्षा नहीं कर सकता, मास्टर ( शिक्षक ) बताता है कि दो और दो र + २ मिलाकर ४ चार होते हैं। वह विद्यार्थी उसको सत्य मान लेता है कि गुरूजीका बताना सही व सत्य है और बेसा विश्वास या श्रद्धान भी वह कर लेता है । फिर कुछ समय बाद कोई इन्स्पेक्टर ( निरीक्षक परीक्षक ) शाला (विद्यालय ) में आकर परीक्षा लेता
पंचास्तिकाय
१. सर्वज्ञता आत्माका स्वभाव है वह ज्ञेयके निमित्तसे नहीं होती स्वतः होती हैं । गा० ४१ टीका ।
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سمر