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पुरुषार्थत्रिचचुषा
रहने के कारण उनका अभाव ( कार्यहीनता ) हो जाता है अर्थात् अन्त तक मिथ्याका द्रव्य दबा रहता है अथवा उदयमें आनेसे दूर ( अन्तर या बंचित ) रहते हैं ( उदयाभावी क्षय ) यह तात्पर्य है । अन्तरकरण और उपशमकरण का स्वरूप नीचे टिप्पणी में लिखा है सो समझ लेना। अभी यहाँ पर करपलब्धि ३ भेद ( जातियाँ ) और उनमें होनेवाले आवश्यक या ९. नत्र प्रकारके विशेष कार्य बतलाए जाते हैं यथा---
( १ ) अधःकरण में ४ चार आवश्यक होते हैं । १ - समय २ अनंतगुणो विशुद्धता ( निर्मलता ) का होना (२) स्थितिबंधापसरणका होना अर्थात् नवीन बंधको स्थिति एक २ अन्तर्मुहूर्त कमी होते जाना ( ३ ) प्रशस्त (पुण्य) प्रकृतियों ( कर्मों) का अनुभाग ( रस ) अनंतगुणा बढ़ते जाना ( अनुभाग वर्धन ) ४ --- अप्रशस्त ( पाप ) प्रकृतियोंका अनुभाग समय २ अनंतवें भाग घटते जाना कुल ४ आवश्यक
( २ ) अपूर्वकरण ३ तीन आवश्यक होते हैं । १-पूर्व कर्मोको स्थितिको अन्तर्मुहूर्त घटाना, अर्थात् स्थितिकांडक घात करना, २- पूर्वबद्ध कर्मो के अनुभागको अन्तमुहूर्स तक घटाना अर्थात् अनुभागकiss घात करना, ३---गुणश्रेणी निर्जंरा करना अर्थात् असंख्यात गुणित कर्मों को निर्जरा योग्य करना कुल ३ हुए ।
(३) अनिवृत्तिकरण में २ दो आवश्यक होते हैं। -अन्तकरण करना ( वर्त्तमान में उदय आनेवाले मिथ्यात्वके निषेकोंको दूरकर देना या हटा देना अथचा उदयमें न आने देना या उसके अयोग्य कर देना ( उदयाभावी क्षय करना ) २ -उपशमकरण करना अर्थात् अगले समय में उदय आनेवाले मिध्यात्वके निषेकोंका उपशम कर देना । इस तरह सब तरहकी बंदिश ( रुकावट ) हो जानेसे ही मिध्यात्व द्रव्य नष्ट होता है यह विधि है अस्तु ।
अर्थ --- अनादि काल से संसारी जीवोंको, परद्रव्यके कत्तपिनेका ( कि हम सभी के कर्ता हैं ) मिया अहंकार हो रहा है, यही अज्ञानरूपी अन्धकार छाया हुआ है, अतएव सत्यार्थं नहीं सूझता, ( यथार्थ नहीं दिखला ) यह दुःखकी बात है । आचार्य कहते हैं कि यदि निश्चयके ज्ञान या आलम्बनसे एक बार भी अन्तर्मुहूत्राको ) मिथ्यात्व छूटकर सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाय ( सम्यi ज्ञान सम्यग्दर्शन रूप सूर्यका प्रकाश हो जाय ) तो फिर किसी प्रकार भी वह जीव संसारमें बँधा या रुका नहीं रह सकता - अधिक से अधिक उसका निवास संसारमें अर्धपुद्गल परावर्तन काल तक ही रहेगा यह नियम है । बस, यही सम्यग्दर्शनका अन्तिम निष्कर्ष ( निचोड़ ) है ऐसा समझना चाहिये और यह आश्चर्य या कुतूहलसे भी नहीं कहा जा सकता कि सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर 'सम्यग्दृष्टि' संसार में हमेशा बंधा रहता है । वैसा कहना गलत है, अज्ञानता है । तथा
इसी तरह यह कहना भी गलत (असत्य) है कि सम्यग्दृष्टिके बंध नहीं होता । यथार्थ बात (सत्य कथन ) यह है कि सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेके कालसे सम्यग्दृष्टि अनंत संसारका बन्ध नहीं होता । उत्कृष्ट स्थितिवाले कर्म ( मोहादि ) नहीं बंधते किन्तु अल्प स्थितिवाले ( अन्तः hterate कम स्थितिवाले ) कर्म बराबर बँधते हैं, सर्वथा निर्वन्ध वह नहीं हो जाता, जलक