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भूमिका कर्तव्यहीन व निन्दाका पात्र बतलाया गया है ताकि ( जिससे ) कोई विरुद्ध कार्य न करे, जैन परंपरा अक्षुण्ण ( निर्दोष ) चली जाय इत्यादि । फलतः दोक्षार्थी शिष्यको पेश्तर उच्च और मोक्षदायक धर्मका ही महत्त्व बताकर उपदेश देना चाहिए, क्योंकि वही असली धर्म या चारित्र है, पिससे जीव संसार से पार हो सकता है । परन्तु जब वह शिष्य सुन व समझ करके स्वयं अपनेको उसके योग्य न पाये ( रागादिसहित शक्तिहीन माने) तब वह दीक्षाचार्यको उस धर्म पालनेसे स्पष्ट इन्कार कर देवे कि महाराज अभी हम इतने ऊँचे धर्म ( यतिधर्म-महाव्रत) को नहीं पाल
. हमसे अभी निर्वाह होना असंभव है क्षमा करें और इससे छोटे धर्मकी हमें दीक्षा देखें इत्यादि । इसके विपरीत यदि उक्त क्रमको न जाननेवाला कोई नया अनुभवशून्य दीक्षाचार्य, पेशतर ही कदम श्रावधर्मका निरूपण व महत्त्व बताकर शिष्यको परीक्षा किये बिना हो। श्रावकधर्मकी दीक्षा दे देबे तो वह दण्डका पात्र अवश्य हो जाता है क्योंकि उस अनभिशने शास्त्रोंकी आज्ञा या परंपरा भंग की है अतः वह चौर्य कर्मका अपराधी सिद्ध होता है। यह विचार किया जाय । दीक्षाचार्य बनमा सरल काम नहीं है, बड़ो भारी जिम्मेवारी उसके कपर है यह ध्यान रहे। यह स्वाश्रित अपराधका नमूना है। अस्तु । स्वयं गलती करना तथा दूसरोंको गलत उपदेश देना महापाप है किम्बहुना । व्रत या मोक्षमार्गके विषयमें हमेशा सावधानी व विवेकशीलताको आवश्यकता है, अन्यथा पूर्वापरका विचार किये बिना कषायवश या अज्ञानतावश तीव्र अपराध होता है इत्यादि ।।१७-१८।।
आगेके इलोकसे और भी पराश्रित अपराधका खुलासा किया जाता है अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽपि' दरमपि शिष्यः । अपदेऽपि संप्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ।।१९।।
पद्य जो उत्साह बहुत सबसा है...-धर्म दीक्षा लेने में । उसको अकम कथनी करके, लुभा देस है थोड़े में । ऐसा दक्षिाचार्य दण्ड का पात्र होत है जिनमत में ।
वचित करता नकली देकर असल धर्म के बदले में ॥५॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ अतिदुरमान प्रोत्सहमान : शिष्यः ] अत्यन्त (बहुत भारी) उत्साह रखनेवाला शिष्य ( दीक्षार्थी ) [ यतः ] जबकि [ अक्रमकथनेन ) आचार्य द्वारा बिना क्रमके यद्वातद्वा कथन करनेसे अर्थात् मुनिधर्मका कथन पेत्तर करना चाहिए था परन्तु वह न करके पेश्तर श्रावकधर्म ( गृहिधर्म ) का कथन किया, जिससे कि वह शिष्य | अपदेऽपि संप्रतृप्तः ] होनपद (श्राक्क्रपद ) में ही सन्तुष्ट हो गया अत: फलस्वरूप [तेन दुर्मतिना प्रतारितो भथति ] वह उत्साही शिष्य, उस दुर्बुद्धि या अल्पबुद्धि ( अज्ञानी ) दीक्षाचार्य ( गुख ) द्वारा ठगा जाता है--मुनिधर्मसे १. अलि पाय ठीक बैठता है।