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भूमिका ध्वनि द्वारा, ग्रन्थ रचना द्वारा, जबानी उपदेश द्वारा, इधर-उधर जाकर प्रचार द्वारा धर्मोपदेश दिया है । पश्चात् श्री कुन्दकुन्दाचार्य, धरसेनाचार्य, समन्तभद्राचार्य, उमास्वामी आचार्य, अमृतचन्द्राचार्य, पुष्पदन्त भूतवली आचार्य, पूज्यपादाचार्य, जिनसेनाचार्यगुणभद्राचार्य आदि कितने ही चोटीके विद्वान् धर्माचार्यों ने स्वयं उदाहरण बनकर लोकमें कार्य किया है। तदनुसार ( उसी परंपराके अनुकूल ) अमृतचन्द्राचार्य आमेको पड़ीके लिए सावधान कर रहे हैं ( स्मरण दिला रहे हैं । कि तुम सब आगे होनेवालोंका भी यही कर्तव्य है कि पूर्व परंपरा अनुसार पेश्तर शिष्यको उच्च वीतराग धर्मका ही उपदेश देकर परंपरा कायम रखना, उसमें शुटि कर अपराध न करना अन्यथा दण्डका पात्र होना पड़ेगा इत्यादि ।
आगे आचार्य दो इलोकोंके द्वारा उपदेश देनेका क्रम बतलाते हैं-- बहुशः समस्तविरतिं प्रदर्शितां यो न जातुं गृह्णाति । तस्यैकदेश विरतिः कथनीयानेन बीजेन ||१७|| यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः । तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ॥१८॥
पद्य
बार-बार समझाने पर जो, सकल त्याग नहिं कर सकता । इसीलिये आदेश उसे है.--एक देश व्रत घर सता || पर यह है अपवाद मार्ग, जो शक्तिहीन जम अपमाते । मिलता नहीं मोक्ष है उनको, व्यवहारी अन पनपाते ||१५|| . इस ही की पुष्टि में कहते-पहिले 'यती धर्म कहना'। नहीं अतामा 'गृही "धर्म को' जिससे दनीय होना ।। क्रमिक ३ भंग करने के काण, अपराधी बह होता है। सौर्य पाप सम उसको जानो, आज्ञा' लोप जु करता है. 11१४॥
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१. बारवार। २. सकलयाम ( महावत )। ३. यदि कदाचित् । ४. एकदेश त्याग ( अपत्याग )। ५, हेतु ( अगत्या )।
दण्डनीयपद (दण्डका पात्र) ७. आजा। ८, अणुव्रत ( वेशवत अल्पत्याग )
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